जया यशदीप घिल्डियाल की तीन कविताएं
by literaturepoint · Published · Updated

जया यशदीप घिल्डियाल
मूल निवासी – पौड़ी गढ़वाल ,उत्तराखंड
स्नातकोत्तर रसायन विज्ञान
रसायन विज्ञान अध्यापिका
पुणे ,महाराष्ट्र
- कातिलों के बच्चे
कातिलों के बच्चे उम्र भर कत्ल होते हैं
सहम जाते
लोकल अखबारों से , खाकी वर्दी से
दरवाज़े पर इक हल्की सी भी आहट
दहला देती उन्हें
घर में आँखों की जगह कान रखते वो
और घर से बाहर भी कान रखते जीभ की जगह
कक्षा में मास्टर की बेंत
पीटी मास्टर की गालियाँ
गंदे इशारे करते उन्हें
गली-नुक्कड़ पर बैठे अधेड
बुरे व्यसनों के आसान शिकार होते कातिलों के बच्चे
कान उमेठे जाने पर खिसियाते
वो बोलते नहीं बस सुनते
वो देखते नहीं बस सुनते
उस कातिल की बेटी को भाग जाना चाहिए था
नुक्कड़ पर इंतजार करते प्रेमी के साथ
उसके लिए तो कभी पानी ने भी इंतजार नहीं किया
उसकी बारी आते ही चला जाता था रसातल में
पर वो भागी नहीं
वो ठहर गई
घर में ही सदा के लिए
उसका प्रेमी अभी भी पड़ोसियों से पूछता है उसकी कुशल
रस्ते आगे बहुत दुश्वार हैं लड़की !
तुझे भाग जाना चाहिए था…..
कातिलों के बच्चे पल पल कत्ल होते हैं
कभी देख के बाप की कमीज़-पैंट ,कभी चप्पलें, कभी बनियान , कभी तौलिया
वो इनमें सूँघते गंध पिता की
फिर सूँघते अपना बदन ….
सिहर जाते हैं
वो फेंक देते किचन से सब चाकू रेजर ब्लैड पिता की …
वो बांध देते अपनी उँगलियाँ
जांघो में दबाये रहते अपने हाथ
माँ जानती है इस गंध के फ़रेब
वो बदल देती है शहर
ले लेती है तलाक
फिर भी कहलाते हैं वो
कातिल के बच्चे ।
2. अर्धविक्षिप्त माँओं के बच्चे
अर्धविक्षिप्त माँओं के बच्चे
कभी नहीं भूलते
अपनी माँ की बोली का लहजा़
वो चढ़ा रहता है उनकी जुबाँ पर ताउम्र
उनको सामान्य लगती माँ और उसकी चीखें ।
इन माँओं के बच्चों का साथ देता कालप्रवाह
वो हो जाते हैं उत्तीर्ण
रतजगों के साथ भी
वो जाते हैं स्कूल
कभी भूखे ही पेट , जब फेंक देती माँ चूल्हे पर चढा़ खाना
वो नहीं होते मनोरोगी
वो सुखी रहते अपने गृहस्थी में
वो बिठा लेते सामांजस्य कैसे भी जीवनसाथी संग ।
उन्हें पता होता कि पानी आने का समय
उन्हें पता होता है पिता का समाज से कटे रहने का मतलब
उन्हें पता होता है कि वो सब जैसे नहीं हैं
उन्हें आते नहीं नाज़-नखरे
उनका दिन शुरू होता है आधी रात के बाद
वो आपस में हँसते हैं खूब
जैसे हँसना हो उन्हें कल पूरे दिन भर का हिस्सा ।
अर्धविक्षिप्त माँओं के बच्चे कभी नहीं भूलते अपनी माँ को
- प्रेम क्या भरे पेट की लग्ज़री है ?
वो दिखा रही थी
“सोलापुर शादी व्हाट्सएप ग्रुप ” में, लड़कों के प्रोफाइल ।
भाभी!
इससे कुछ ही दिन पहले बात ख़त्म हुई
गोरा है ना ये ?
कार खरीदेगा शादी के बाद बोलता था
दुबई गया
एक ये है
अपने माँ -बाप से छुपाया इसने सब
मैं थोड़ा काली हूँ और घर-घर काम करती हूँ
इसके घर वाले नहीं माने
और एक ये
मुझसे कहता—पहले रात को हस्बैंड-वाइफ वाली बातें करूं
फिर शादी का सोचेगा
मैंने ही ना कह दी
और इक ये
बस चैट करता था
फोन हमेशा उसके पिता करते
माँ बोली लड़के से बात करवा दो
वो बोले , शादी के बाद ….
अब उसने चैट बंद कर दी
मुझसे क्या गलती हुई ?
मैं उससे प्यार करने लगी थी
मैं बहुत रोई दस दिन पंद्रह
रंजो की शादी हुई ..
उसने मुझसे बात करनी छोड़ दी
.
श्यामा का बेटा हुआ
उसकी मां ने उससे मिलने नहीं दिया
एक बच्चे को गोद में खिला रही थी
लोग समझे मेरा बेटा है !
ओह अब मैं बच्चे की मां जैसी दिखने लगी ?
मैं मोटी हो गई , पेट निकल आया …
क्या मेरा चेहरा औरत सा लगने लगा ?
भाभी! उस दिन फिर मैं बहुत रोई
-तुझे किसी से तो प्यार होगा उससे ही शादी करना
प्यार करके शादी करने में ये सब प्रपंच नहीं होते ।
दूधमुँही थी कि माँ काम पर साथ ले जाती , पिता गुजर गए थे
दस बारह साल में काम शुरू कर दिया – झाडू,पोछा,बर्तन
कितने ही मर्द थे !
कितनी ही आँखें!
जो नापती हर दिन बढती देह को
क्या करती एक तेरह – चौदह साल की लडकी
जब बर्तन मांज रही होती और मालिक निर्वस्त्र पीछे खड़ा हो जाता
मैं घबराई नहीं थी
हाथ – पाँव सुन्न नहीं हुए
मैं धक्का दे कर भागती रही
रौंदती कितनी ही नंग-धडंग देहों को
छब्बीस की पूरी हो गयी
मुझे हुआ जब भी प्यार
उसमें शादी कहाँ होती है ?
मुझे प्यार नहीं करना
अब मुझे शादी करनी है
मुझे घर पर रहना है
पर अब डर लगता है
क्या मेरी शादी कभी नहीं होगी ?
उसकी बातों के बाद इक उलझन सी रहती है
” प्रेम क्या भरे पेट की लग्ज़री ” ?
( कविता सी बातें सीरीज से ..)
Superb?