डॉ निधि अग्रवाल की तीन कविताएं
by literaturepoint ·

डॉ निधि अग्रवाल
मूल निवासी गाज़ियाबाद उत्तर प्रदेश
डॉक्टर (पैथोलोजिस्ट)
झाँसी उत्तर प्रदेश
- तीन तलाक
केवल तुम्हें ही नहीं है..
तलाक का हक,
मैंने भी दिया है तलाक…
उन अवांछित-सी
कामनाओं को,
जो मुझे मेरे अस्तित्व का
हर पल अहसास कराती हैं,
जब मैं झुक जाती हूँ
तुम्हारे निर्णयों के समक्ष,
दूर कोने में खड़े हो
मुझे मुँह चिढ़ाती है.
मोह त्याग दिया है…
सभी ख्वाबों का जो
यकीन दिलाते हैं मुझे
सच्चा होने का..
और शांत स्थिर हृदय में
कुछ सुमधुर भावों का
स्पंदन कर जाते हैं
और यूँ ही..
सम अधिकारों का
पाठ पढ़ा जाते हैं.
बेरहमी से कर दिया है
जुदा खुद से…
उन सभी अस्फुट स्वरों को
जो मुझमें सोई……
एक लड़की को जगाते हैं
एक बेपरवाह बेखौफ जिंदगी
जीने को उकसाती हैं,
और उम्मीदों से…
मेरी नजदीकियां बढ़ाती हैं.
देखो,
अब कहाँ है तुम्हारा दम्भ…
छीन लिया गया तुमसे
तीन तलाक का अधिकार…
उन्हें तो नजर आया बस,
एक यही अत्याचार,
पर मेरा अधिकार तो सुरक्षित है…
हर युग हर धर्म में…
तुम्हारे जीवन में खुद को
बनाये रखने की खातिर…
मुझे अपने तीनों तलाक
शिद्दत से निभाने ही होंगे !
कहते रहना होगा…
मेरे वजूद मेरे अरमानों और
सभी कोमल अहसासों को..
तलाक ! तलाक !तलाक !
तुम्हारे जीवन में अभी भी
मेरे ‘मैं’ का कोई अस्तित्व नहीं,
मैं अब परित्यक्ता नहीं…
मगर ब्याहता तो अब भी हूँ,
पितृसत्ता से मुक्ति के
फैसले की प्रतीक्षारत !!
- एक गुनाह ऐसा भी
मैं चलती रही तुम्हारे साथ
अनजाने अंधियारे रास्तों पर भी,
वर्जनाओं के कई पर्वत लांघे…..
भावनाओं के समंदर भी पार किए
नमकीन पानी से कसेला मन लिए,
कई दफा डूबी कई दफा तैरी……
कुछ हरे खेत भी आये
जिन्हें मन भर देख भी न पाई
कदम से कदम मिला
बस चलती रही
तुम्हारी परछाई सी,
कभी ऐसा सूरज निकला ही नहीं
कि मेरी परछाई बड़ी हो जाती
तुम्हारा आसमान मुझसे
बहुत ऊंचा ही रहा,
फ़ूलों के बाग से कुछ
मोगरे की कलियां
चुपके से बालों में सजा ली थी
वह भी कुम्हला चुकी हैं
लेकिन महक उनकी रेगिस्तान में भी
मेरे साथ रही……….
तुम तक पहुंची क्या कभी ?
गर्म रेत पर पैरों के निशान
तुम्हारा हर कदम मुझसे आगे
तुम जरा रुको अगर
तो अपने पहले कदम के निशान मिटा दूँ
पीछे आने वालों को एक नया कायदा
देना जरूरी है
मीठे झरने से भी
तुम प्यासे ही लिए जाते हो
जाने किस जल्दी में हो?
और ये अंतहीन सुरंग ,
तुम भी तो दिखते नहीं
सिर्फ तुम्हारे अहसास के सहारे
मुहाने तक आ पहुंची हूँ,
चाहती हूँ कुछ पल
ठिठक जाना……
उलझे बालों को
तेरी अंगलियों से सुलझाना,
पर तुम्हें चलते जाने की जिद है
सफर तन्हा ही क्यों न हो !
अपने अहम को आत्मदाह कर
तुम्हे रुकने को पुकारूँ या
इस एकतरफ़ा समर्पण का
गला घोंट
वापसी का सफर तय करूं
कौन से जुर्म की
सजा कम है ??
- प्रेम-समर्पण
हम स्त्रियां किसी से प्रेम नहीं करतीं……
हमें तो प्रेम है बस प्रेम के अहसास से!
हर रिश्ते में यह अहसास ही तलाशा करती हैं
जिसमें मिल जाए उसी की हो जाया करती हैं,
हमारे प्रेम का कोई रूप कोई आकार नहीं
जिस सांचे में डालो वैसा ही ढल जाएगा,
कभी बहन कभी प्रेयसी कभी बेटी बन
ये समर्पित रहेगा और समर्पण ही चाहेगा,
ये अखबारों की तारीखों जैसा रोज बदलता नहीं
ये वो आयते हैं जो सजदे में झुकी रहती हैं,
मान लेती हैं जिसको भी अपना
समस्त जीवन दुआएं देती हैं,
बदल जाओ तुम अगर बदलना हो
भवरों सी चंचलता दिखलाओ,
स्त्री तो होती है जड़ों के मानिंद
अपनी मिट्टी से जुड़ी रहती हैं,
टूटती नहीं ये अपमानों से
प्यार के बोल सुन सब्र खोती हैं,
ओढ़ लेती हैं धानी चुनर मुस्कानों की
और फिर किसी कोने में छुप रो लेती हैं.
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अद्भुत 3 कविताएं ??? ये हादसों का शहर है ये अंधेरों का सफर है फिर भी ,,,, चाँद-सितारे तेरे आंगन इक दिया दूर कहीं रौशनी की कमी नहीं ,,,,
अद्भुत ,,,,, 3 कविताएं ,,,,,ये हादसों का शहर है ये अंधेरों का सफर है फिर भी चाँद -सितारे तेरे आंगन इक दिया दूर कहीं कम नहीं रौशनी …..