फेंटिए, फेंकिए और फंसाइए !
by literaturepoint ·

जयप्रकाश मानस

हर शुक्रवार, किस्त 16
16 अक्टूबर, 2015
तलाश
मैं रोज़ एक अपरिचित संसार से परिचय की तलाश में रहता हूँ, जहाँ नये सूरज, चाँद, सितारे, आकाश, लोग-बाग, घर-आँगन, अपनी नई उदासी और नई जिजीविषा के साथ मुझसे बतियाने की फ़िराक़ में हों । तलाश एकतरफ़ा तो है नहीं ? तलाश नदी से तट की ओर वापसी नहीं, तलाश किनारे से केवल मँझधार की ओर चलने की हड़बोंग परंपरा भी नहीं! तलाश नदी है, नाव है, धारा है । और इन सबसे हटकर एक विशुद्ध असफलता भी। मतलब नाविक की सच्ची ज़िदगी। ज़िदगी न सफलता का अर्थ है, न असफलता से ज़िदगी का भावार्थ अधूरा रह जाता है। असफलता तलाश का मुख्य प्रवेश द्वार ही तो है और सफलता भटकने का सिंहद्वार! और कुछ भी है तो उसे कोई भी परिभाषित करने को स्वतंत्र हैं !
खेत ही कविता है
धान के खेत तो हमारे साथ फ़ोटो खींचवायेंगे नहीं तो क्या हम भी माँ की बात बिसार दें ? ना भई ना !खेत न रहें तो कहाँ कविता !कहाँ हम टूटपूँजिए कवि !!!अर्थ कविता नहीं; धान, खेत और किसान की आँखों की तस्वीरें ही है ? तो हम क्यों दूर रहें तस्वीर से ? (असम की यात्रा में एक क्षण)
दुकानदार
हमसब एक पंडे हैं लेकिन हम सभी के झंडे अलग-अलग हैं । गंडे ताबीज भी अलग-अलग ! तीर्थ भी एक नहीं । हम सब कभी एक नहीं, क्योंकि दुकान और हिसाब-किताब एक नहीं हमारे !
अर्थ
सत्ता का वास्तविक अर्थ ताश है; और ताश का धर्म : फेंटिए, फेंकिए और फँसाइए !
रंग
समूचा पूरा लाल, काला, नीला, सफ़ेद, हरा, पीला, गुलाबी खुद से नहीं होता कोई ।उसके चेहरे पर कैसे कालिख लगाई जाती है, यह भी महत्वपूर्ण है ।एक रंग नहीं होता किसी भी पदार्थ का ! एकरंगी मज़ा दे सकते हैं, मुक्ति नहीं !
अंतर
पगार, मजदूरी, मेहनताना, पारिश्रमिक, तनख़्वाह, वेतन, सैलेरी, पेमेंट, मंथली इन्कम समानार्थी नहीं; बहुत अंतर है इनमें । ठीक जैसे नद, नदी, नाले, नाली, नल, नली एक जैसे चेहरे नहीं ।
आँगन-पड़ोस-अँधियारा-उजियारा
पड़ोस से अंधेरा इसलिए नहीं हटता, क्योंकि हम सब के सब सबसे पहले सिर्फ़ अपने-अपने आँगन के लिए उजियारे की जुगाड़ में मरते रहते हैं और इस बीच हमारे अमर (?) होते ही पड़ोस का अंधियारा हमारे आँगन तक चुपचाप जाता है ।
वरना भी लिखते चले जाना है
कुरियर वाला दो पत्रिकाएँ दे गया था आज : ‘लमही’ के अक्टूबर-दिसंबर-2015 अंक में 5 कविताएँ और ‘जागरण सखी’ के अक्टूबर-2015 अंक में एक साहित्यिक निबंध के साथ मेरी भी छोटी-सी उपस्थिति है । पाठक मित्रों को पसंद आये, कुछ असर हो सके तो लिखना सफल वरना भी लिखते चले जाना है…. लिखना ख़ुद पर विश्वास भी है…..!
बतायें तो भला !
मेरे पास पिछले दिनों सम्मानपूर्वक एक ईमेल आया है – ”कश्मीर की एकमात्र साहित्यिक संस्था ‘हिंदी कश्मीरी संगम’ ,जम्मू (अध्यक्ष- प्रो. चमनलाल सप्रू) और साहित्यिक पत्रिका ‘कश्मीर संदेश’ (संपादक-बीना बुदकी) आदिवासी जनपद छत्तीसगढ़ के मुझ अदने से कवि को 23 अक्टूबर के दिन ‘कश्मीरी साहित्य और संस्कृति के उज्ज्वल प्रतीक’ दीनानाथ नादिम की स्मृति सम्मान देकर मुझे रेखांकित करना चाहती हैं ।”
अगर मैं वहाँ पहुँचूँ तो इससे देश में कट्टरता बढ़ेगी या कट्टरता कम होगी न !
ऐसा ही कुछ मैं भी सोच रहा था कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी का बयान पढ़ने को मिला – ”लेखकों के लगातार सम्मान लौटाने से अकादमी की गरिमा घटी है । विरोध दर्ज कराने का लेखकों का तरीका सही नहीं है और लेखक अपनी ही संस्था का अपमान कर रहे हैं । वो अपनी संस्था की गरिमा घटा रहे हैं ।हमने 23 अक्टूबर को अकादमी के बोर्ड की आपात बैठक बुलाई है जिसमें पुरस्कार लौटाने वालों पर फ़ैसला लिया जाएगा । इस्तीफ़ों का कारण अख़बार में ये आ रहा है कि मोदी जी की चुप्पी के विरोध में (इस्तीफ़े दिए गए) । बाद में पता नहीं कि ये कैसे बदलकर साहित्य अकादमी की चुप्पी में बदल गया, ये समझ में नहीं आया…. साहित्य अकादमी सरकारी संस्था नहीं है। साहित्य अकादमी चुप नहीं रही है ।मैंने पद छोड़ने के बारे में नहीं सोचा क्योंकि उन्हें “लेखकों ने चुना है” और उन्हें “लेखकों द्वारा निर्विरोध चुना गया था ।”
और फिर विनोद कुमार शुक्ल का बयान भी ”मैं अपना अकादमी सम्मान नहीं लौटाऊँगा और इसे सलीब की तरह ढोता रहूँगा। यह सम्मान कोई उधार नहीं है, जिसे लौटाया जाए । हालाँकि मैं मानता हूँ कि जिन कारणों से सम्मान लौटाए जा रहे हैं, उन कारणों के साथ मैं भी हूँ । मैं ऐसी घटनाओं की निंदा करता हूँ और मानता हूँ कि तरह-तरह की कट्टरता के कारण हत्या तक हो जाती है, इसे बंद किया जाना चाहिए ।”
22 अक्टूबर, 2015
आत्मगौरव
धोबी का पत्थर जानता है कि घाट पर बने मंदिर के पत्थर पर जो जल चढ़ता है वह उससे मिलकर ही वहाँ तक पहुँचता है ।
सबसे कमज़ोर की जीत
दशहरे का दिन । मन ही मन –लंका विजयी राम की कृपा हम सब पर हो और मिठाई न सही, कम-से-कम आज के दिन हम सभी की थालियों में चावल के साथ दाल के कुछ दाने भी नसीब हो जायें ! सबसे कमज़ोर और दीन-हीन लोगों के लिए इससे बड़ी जीत और क्या होगी !
न्याय का वस्त्र
आज अख़बारों से पता चला कि कल से मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने कर्मचारियों के जीन्स टीशर्ट व भड़कीले रंग के कपड़े पहन कर न्यायालय आने पर रोक लगा दी है। न्याय का वस्त्र ही नहीं, तन-मन, जीवन और चरित्र भी धवल और पवित्र क्यों नहीं होना चाहिए ? ‘कोट’ का रंग भी सफ़ेद क्यों नहीं ? जो भी हो, पहल हमारी पहचान और संस्कृति के अनुरूप ही है ।
प्रतिष्ठा का प्रश्न
कुछ पत्रिकाएँ प्रतिष्ठित होती हैं, उनके संपादक नहीं । कुछ संपादक प्रतिष्ठित होते हैं, उनकी पत्रिकाएँ नहीं । ऐसी वास्तविकताओं से हटकर कुछ ऐसी पत्रिकाएँ और उनके संपादक भी होते हैं जो सभी स्तरों पर प्रतिष्ठित होते है । ‘कृति ओर’ और उसके सुयोग्य संपादक आदरणीय विजेन्द्र जी/ अमीरचंद वैश्य जी के बारे मे ऐसा कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं । ‘कृति ओर’ में इधर मेरी कुछ कविताएँ छपी हैं तो बस प्रतिष्ठित रचनाकार-संपादक द्वय की सुदृष्टि के कारण भी ।
जोदी तोर डाक सुने केऊ ना आसे…
कोलकाता से गुज़रें और ट्रेन पर आपको बाऊल गाने वाले न मिलें !बाऊल गाने वालों को मैं भिखारी नहीं, दाता ही मानता हूँ; वे हर बार मुझे कुछ न कुछ नया दे जाते हैं ।कहते हैं बंगाल के प्रत्येक परिवार में एक सदस्य ऐसा होता है जो बाऊल गान जानता ही है ।
इस बार असम से लौटते समय दो भाई मिल गये थे – निताई और निमाई ।मैंने कहा – बोंधु, रोबिन्द ठाकुर सुनाबेन कि ?
ट्रेन की पूरी बोगी झूम उठी – जोदी तोर डाक सुने केऊ ना आसे…..तबे एकला चोलो रे….
मैं तो जब-तब याद कर झूम-झूम उठता हूँ । अभी झूम ही रहा है ये सरस मन ।
Share this:
- Click to print (Opens in new window)
- Click to share on Facebook (Opens in new window)
- Click to share on LinkedIn (Opens in new window)
- Click to share on Twitter (Opens in new window)
- Click to share on Tumblr (Opens in new window)
- Click to share on Pinterest (Opens in new window)
- Click to share on Pocket (Opens in new window)
- Click to share on WhatsApp (Opens in new window)
You must log in to post a comment.