अनिरुद्ध सिन्हा की पांच ग़ज़लें
एक
मैं ढूँढता हूँ आज मेरा घर कहाँ गया
रिश्तों के बीच प्यार का मंज़र कहाँ गया
अपनी ही धुन में लोग हैं खोए हुए तमाम
तनहा हरेक शख्स है लश्कर कहाँ गया
वो भी तो अपने आप में सिमटा रहा बहुत
मैं भी हदों को तोड़ के बाहर कहाँ गया
सुलगा हुआ है दिल में वही एक ही सवाल
रौशन हो आदमी का मुक़द्दर कहाँ गया
मुश्किल के इस सफ़र में मुझे भी तलाश है
जो सर उठा यक़ीन से वो सर कहाँ गया
दो
हवा में पाँव होठों पर हँसी है
ये कैसी हुस्न की दीवानगी है
नए वादों के फिर जेवर पहनकर
सियासत मुफ़लिसी में ढल रही है
वहाँ कुछ होंठ भी पत्थर के होंगे
जहां कुछ बेअदब सी ज़िंदगी है
न इतनी तेज़ चल पुरवाइयों में
अभी मौसम में थोड़ी सी नमी है
भला क्यों चाँद के पहलू में तेरे
बदन खामोश कुछ-कुछ बेबसी है
तीन
यूं खज़ाना न खोलकर रखिए
पास अपने भी कुछ हुनर रखिए
जिससे मिलते ही आँख भर आए
उसके सजदे में अपना सर रखिए
लूट लेंगे पड़ोस वाले ही
यूं खुला हर घड़ी न दर रखिए
सिर्फ़ इतना नहीं कि चलना है
अपने कदमों पे भी नज़र रखिए
सैकड़ों आईने पुकारेंगे
अपने चेहरे सँवारकर रखिए
चार
नए शोलों में तपने का हसीं इनाम लिख देते
हमारे नाम भी कोई सुहानी शाम लिख देते
सियासी लोग ही हैं साहबे-औलाद गुलशन के
गली कूचे मुहल्ले में यही पैगाम लिख देते
निभाने के लिए रस्में-वफ़ा सब लोग हाज़िर हैं
तुम्हारी अंजुमन क्या किसी का काम लिख देते
हमारी बेबसी हमको कहीं जीने नहीं देंगी
बिकेंगे हम इसी बाज़ार में कुछ दाम लिख देते
कभी हम झूठ बोलें तो पकड़ में ख़ुद चले आयें
हमारी पीठ नंगी हैं हमारा नाम लिख देते
पांच
दुखों की बस्तियाँ आबाद थीं जब जगहँसाई तक
चुकाया कर्ज़ हमने जिंदगी का पाई-पाई तक
बुढ़ापे में हमें यूँ क़ैद कर रक्खा है बच्चों ने
हमारे घर की चौखट से हमारी चारपाई तक
हसीं चेहरे बढ़ा दे हुस्न रिश्तों के भले लेकिन
नहीं पहचानते मुश्किल में अपने भाई-भाई तक
तुम्हारा नाम रातों में जो हम लिखते हैं कागज़ पर
अँधेरों में चमकती है कलम की रोशनाई तक
हमारे बीच माना रंजिशों के सिलसिले हैं कुछ
जरूरी तो नहीं कायम रहें वो आशनाई तक
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गुलज़ार पोखर,मुंगेर (बिहार)811201
Email-anirudhsinhamunger@gmail॰com
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