क्या कोई भी रचनाकार दुष्ट नहीं?
by literaturepoint · Published · Updated


किस्त 22, हर शुक्रवार
13, नवंबर, 2015
हिंदी की शुष्कता या उर्दू की रवानी ?
गोपेश्वर सिंह जी हिंदी के ऐसे जाने-माने प्रोफ़ेसर-लेखक-आलोचक हैं, जिनकी बातें गंभीरता से सुनी जाती रही हैं । कई बाबा नागार्जुन से लेकर अब की पीढ़ी और उनकी दुनिया की रंगत को क़रीब से देखते-परखते रहे हैं वे । उनकी यह बात पढ़कर मैं भी सोचने को बाध्य होता हूँ कि क्या सचमुच ऐसे दिन आ गये या यह उर्दू की एक बड़ी ताक़त है ? ”अपने दैनिक जीवन में हिंदी प्रदेश के लोग समकालीन हिंदी कविता की तुलना में उर्दू के शेर अधिक उद्धृत करते हैं । इसका कारण हिंदी कविता में वैविध्य का अभाव और उसका शिल्प है या कोई और बात , जिसके कारण हिंदी कविता अब स्मरणीय नहीं रहीं ?”
ऐसे हैं वहाँ के पाठक
बाल रचनाकारों को भले ही हिंदी वाले बौने समझते हों, पश्चिमी दुनिया उन्हें उतना ही अधिक तरज़ीह देती है । और शायद यह भी सच है कि पश्चिमी दुनिया के प्रौढ़ पाठक बच्चों के साहित्य से भी लगभग समान लय से जुड़ते हैं ।आज मैंने ‘डायरी ऑफ ए विंपी किड’ सीरीज़ को देखा। यह दुनिया भर में बच्चों की सबसे अधिक पसंदीदा किताबों में शामिल है। जेफ़ किनी की ये किताब दुनिया के 90 देशों अलग-अलग भाषाओं में मिलती है ।किताब की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि इसका 48 भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है । भारत में इस सीरीज़ की किताब 2008 से मिल रही हैं, तब से लेकर अब तक किताब की 20 लाख से कहीं अधिक कॉपियाँ बिक चुकी हैं।यानी कह सकते हैं पश्चिम बाल साहित्य और बाल साहित्यकारों को दोयम कहाँ समझता है !
कवि का बड़प्पन
कवि बहुत छोटा क्यों न हो, वह इसलिए बड़ा बन जाता क्योंकि वह अपनी कविता में उन मनुष्यों की तलाश करता है जो कहीं बड़े हों । इस रूप कविता का मनुष्य, कविता करने वाले मनुष्य से भी अधिक बड़ा हो जाता है ।
कोई बताये ?
मैंने कहीं पढ़ा था : मराठी में लेखकों की एक प्रदेशव्यापी यात्रा ग्रंथावली निकलती है और लाखों रुपयों की पुस्तकें सीधे पाठकों को बेचकर संपन्न होता है ।क्या यह अब भी होता है हर साल ? कैसे संभव हो पाता है यह सब ? हम हिन्दीवाले इससे कुछ सीख सकते हैं ?
16 नवंबर, 2015
अर्थात् सभी सज्जन ?
ऐसा एक भी रचनाकार मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आया जो अपने महान् ‘संस्मरण’ के बहाने ही सही, खुद को हिन्दी में ‘दुष्ट’ लिख सके ।
पहचान का मान
पहाड़ का अस्थायी निवासी यदि तलहटी के छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर को पहचानने से इन्कार करता है तो उससे कंकड़-पत्थर का मान ही बढ़ता है, क्योंकि उन्हें तो पहले से ही पता होता है वे उसके मुखिया के गाँव के स्वार्थी नागरिक हैं; और जो अपनी असलियत खुलने के डर से पहचान छुपाते फिरते हैं ।
फ़ेसबुक पर चार देवता
* पहला वे जो केवल नापसंद बात को भी Like करते हैं ।
* दूसरा वे जो अनर्गल और संदर्भ से बाहर Comnents करते हैं ।
* तीसरा वे जो केवल दूसरों से अपने पोस्ट पर Like या Comments की अपेक्षा में व्याकुल रहते हैं । भले ही वे आपकी सर्वोत्कृष्ट Post की अनदेखी कर स्वयंभूमहान् बने रहें।
* चौथा वे, जो अपनी हर Post को सर्वोत्कृष्ट मानकर केवल tag करने पर विश्वास करते हैं। टैगार्थियों को चाहें तो आप टैगासुर भी कह सकते हैं
(बचे-खुचे उन सारे को ‘महादेव’ की श्रेणी में रखा गया है जो इन सबसे परे हैं । )
लेखक की अनैतिकता ?
प्रश्न तो बहुत पुराना है फिर भी अब तक के सारे विमर्शों की परिणितियों में दो टूक हल झिलमिला नहीं सका है । आख़िर रचनाकार की नैतिकता और उसके लेखन के रिश्तों को किस तरह परिभाषित किया जा सके ?
मेरा निजी अनुभव तो यही कहता है कि एक अनैतिक इंसान के भीतर भी एक नैतिक कवि छुपा बैठा हो सकता है किन्तु आख़िर किसी कवि की अनैतिकता की वह सीमा रेखा क्या हो, जिसके साथ उसकी कविताओं में नैतिक उजास बनी रहे ? और नैतिकता के साथ प्रतिबद्धता क्या लेखक के लिए या समाज, देश, काल के लिए भी बेमानी है ?
आप क्या सोचते हैं ? प्रश्न केवल मेरा ही नहीं, वरिष्ठ कवि और संपादक आग्नेय जी का (सदानीरा, अंक 5) भी है भई
”क्या लेखक और उसके लेखक को लेकर नैतिकता के प्रश्न उठाये जा सकते हैं ? क्या लेखक का जीवन, उसके जीवन जीने का तरीक़ा और उसके जीवनयापन के बारे में नैतिकता का कोई तारतम्य बन सकता है या बनाया जा सकता है ? क्या लेखक के विरुद्ध समाज या जनता की अदालत में या राज्यसत्ता की किसी कचहरी में अभियोग-पत्र दाख़िल किया जा सकता है ?”
I pay a visit each day some web sites and information sites to read articles or reviews, except this web site
presents quality based posts.
This is very interesting, You are an overly skilled blogger.
I have joined your feed and look forward to in quest
of more of your great post. Additionally, I have shared your
site in my social networks