गौरव भारती की दो कविताएं
1.
मैं भूखा …..
तुम भी भूखे हो ,
आओ ,आओ मिलकर भूख मिटायें,
इक -दूजे को नोचें खाएं |
नहीं खा सके इक -दूजे को ?
क्यों न सियासी पेंच लगाएं ,
बहुत सीखा है इतिहास से हमने ,
नुस्खा क्यों न वही आजमायें |
चलो खेलते हैं एक खेल,
गेरुआ -हरा प्रतिद्वंदी बन जाये ,
लोहित हो यह मही पल-भर में ,
चील -कौओ की दावत हो जाये |
2.
रोज हो रही
निर्मम हत्या हमारे सपनों की
न दायर होती है जनहित याचिका
ना ही होती है कहीं सुनवाई|
डिग्रियां बेकार है ..
एक अनार सौ बीमार हैं ..
उम्मीदों की चिता जलाकर मैंने…
पाया फार्चून का रोजगार है |
चुनावी बिगुल है बज चुका ,
घोषणा -पत्रों में लुभावन सपने ..
आओ टोपी धारको की करें चाकरी …ताकि ,
जिंदा छोड़ दें, चाहे उजाड़ दे सपने |
सब खामोश हैं
कहाँ इसकी फरियाद करें …
न जाने कितने हत्यारे हैं …..
किस -किस पर हम इल्जाम मढ़ें ?
बहुत खूब
आज का यथार्थ।