महावीर उत्तरांचली की ग़ज़लें
एक
ग़रीबों को फ़क़त, उपदेश की घुट्टी पिलाते हो
बड़े आराम से तुम, चैन की बंसी बजाते हो
है मुश्किल दौर, सूखी रोटियाँ भी दूर हैं हमसे
मज़े से तुम कभी काजू, कभी किशमिश चबाते हो
नज़र आती नहीं, मुफ़लिस की आँखों में तो ख़ुशहाली
कहाँ तुम रात-दिन, झूठे उन्हें सपने दिखाते हो
अँधेरा करके बैठे हो, हमारी ज़िन्दगानी में
मगर अपनी हथेली पर, नया सूरज उगाते हो
व्यवस्था कष्टकारी क्यों न हो, किरदार ऐसा है
ये जनता जानती है सब, कहाँ तुम सर झुकाते हो
दो
क्या कहूँ इंसान को क्या हो रहा है
हर घड़ी ईमान अपना खो रहा है
गिर गया है ग्राफ़ मानवता का नीचे
अपने नैतिक मूल्य मानव खो रहा है
अब नहीं है दर्द की पहचान मुमकिन
हँसते-हँसते आदमी अब रो रहा है
आधुनिक बनने की चाहत में कहीं तू
कांटे राहों में किसी के बो रहा है
घुल गए हैं पश्चिमी संस्कार इतने
नाच बेशर्मी का हरदम हो रहा है
तीन
किस मशीनी दौर में रहने लगा है आदमी
ख़ून के आँसू फ़क़त पीने लगा है आदमी
सभ्यता इक दूसरा अध्याय अब रचने लगी
बोझ माँ-ओ-बाप को कहने लगा है आदमी
दूसरे को काटने की ये कला सीखी कहाँ
साँप के अब साथ क्या जीने लगा है आदमी
लुट रही है घर की इज़्ज़त कौड़ियों के दाम अब
लोकशाही में फ़क़त बिकने लगा है आदमी
इक मकां की चाह में जज़्बात जर्जर हो गए
खण्डहर बन आज खुद ढहने लगा है आदमी
चार
बदली ग़म की जो छाएगी
रात यहाँ और गहराएगी
गर इज़्ज़त बेचेगी ग़ुरबत
बच्चों की भूख मिटायेगी
साहिर* ने जिसका ज़िक्र किया
वो सुब्ह कभी तो आयेगी
बस क़त्ल यहाँ होंगे मुफ़लिस
आह तलक कुचली जायेगी
ख़ामोशी ओढ़ो ऐ शा’ इर
कुछ बात न समझी जायेगी
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*साहिर — साहिर लुधियानवी एक प्रसिद्ध शायर तथा फ़िल्मी गीतकार थे। जिन्होंने, ‘वो सुबह कभी तो आयेगी’ लम्बी कविता रची। जिसमें बेबस, मज़लूमों के लिए नई सुबह का ज़िक्र है! जहाँ खुशहाली का सपना साकार होते बताया गया है!
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महावीर उत्तरांचली
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