ज्योति साह की तीन कविताएं
by literaturepoint ·

हिन्दी प्राध्यापिका
रानीगंज, अररिया
बिहार
शहर के बीचों-बीच
पहले
शहर में मैं थी,
अब
शहर मुझमें है,
उनकी तमाम
परेशानियों को समेटे
सींझती/पकती
और उबलती हूँ,
अभी उम्मीद के
हर दरख्त
बंद है शायद…..,
चलो फिर
निकलो घरों से
ढूंढ लायें
एक कतरा उम्मीद
दरख्तों से
अंगोछे में भर,
डाल दें
शहर के बीचों-बीच
हर कोई
नहाये/डूबे और इतराये,
फिर
खिलखिलाये बचपन
मुस्कुराये बुढ़ापा
और होश में हो ज़वानी।।
कठपुतली
बना के कठपुतली नचाते रहो
रखो दोनों शिराओं को तलवे के नीचे
हमारा क्या है…..
तुम कहो तो हम उठें
तुम कहो तो बैठे
चाहो तो सांस लेने के भी
समय तय कर दो
और जब भी तुम बोलो
हम बजा दें ताली,
हाँ एक रस्सी भी
बाँध दो टाँगों में
ताकि कहीं और का रूख
ना कर सकें
बिठा दो पहरे आँखों पर
तुम्हारे दिखाये के सिवा
कुछ देख ना सके,
सिल दो होंठ
कि तुम्हारे चाहे बिना
उसे हिला भी ना सकूं,
जकड़ दो पंखों को
कि लाख कोशिशों के बाद भी
स्वच्छन्द उड़ान भर ना सकूँ,
सुनो…
भले डाल दो काल-कोठारी में
बस एक झरोख़ा खुला रखना
ताकि जब निकले तुम्हारी झाँकी
झंडा फहराने को
तो जी भर उसे निहार सकूँ,
तुम्हारी जीत
और अपनी हार पे
सिर्फ़ और सिर्फ़ कुछ आँसू बहा सकूँ।।
स्त्रियां
दिख रही है मुझे
आत्मविश्वास से लबरेज स्त्रियां
देहरी लांघ
घूँघट से निकल
हर क्षेत्र में पहचान बनाती स्त्रियां
तवे पर रोटी सेंकती
और सेंसेक्स का ज्ञान रखती स्त्रियां
बच्चे को कंधे पे लाद
घर-आँगन-द्वार
हर जगह उपस्थिति दर्ज कराती स्त्रियां
घर संभालती
बच्चे पालती
वक्त निकालकर खुद भी पढ़ती
और टॉप टेन में आती स्त्रियां
बड़े-बूढ़े,आस-पड़ोस
सबका ख्याल करती
और फिर एकांत में
काव्य रचना करती स्त्रियां,
हर मसाले का स्वाद पहचानती
स्वादिष्ट खाना पकाती
रिश्तों में जान डालती स्त्रियां,
माँ का घर छोड़
पति के घर जाती
नये घर में सामांजस्य बैठाती
दिन-रात खुद को सेवा में लगाती
हरेक के खुशी का ख्याल रखती
और फिर….
“पूरे दिन क्या करती हो?”
का तमगा पाती हैं स्त्रियां,
बैंको में नोट गिनती
पेप्सिको की CEO बनती
रसोई से संसद तक पहुंचती स्त्रियां,
कहानी लिखती
उपन्यास लिखती
गद्य-पद्य-छंद में
घुल-मिल जाती स्त्रियां,
रसोई में बेलन संग डोलती
फिर स्टेज पर पहुंच
वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाती स्त्रियां,
दिख रही है मुझे
आत्मविश्वास से लबरेज स्त्रियां।।
Sachchi Kavita yen
Very nice.new/samkaleen.very good.