औजार की तरह भाषा का इस्तेमाल करते उमाशंकर सिंह परमार
by literaturepoint · Published · Updated
- जन्म : 15 जुलाई, 1966, मुंगेर, बिहार
- शिक्षा : एम. ए. (हिन्दी)
- प्रकाशन : ‘गर दादी की कोई ख़बर आए’, ‘अभी शेष है पृथ्वी-राग’, ‘अच्छे दिनों में ऊंटनियों का कोरस’, ‘वितान’, ‘इस समय की पटकथा’, ‘थिरक रहा देह का पानी’ छह कविता-संग्रह तथा आलोचना की पहली किताब ‘कवि का आलोचक’ प्रकाशित। ‘गर दादी की कोई ख़बर आए’ कविता-संग्रह बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत। ‘आग मुझमें कहाँ नहीं पाई जाती है’ कविता-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। ‘बारिश मेरी खिड़की है’ बारिश विषयक कविताओं का चयन-संपादन। ‘स्वर-एकादश’ कविता-संकलन में कविताएं संकलित। ‘वितान’ (कविता-संग्रह) पर पंजाबी विश्वविद्यालय की छात्रा जसलीन कौर द्वारा शोध-कार्य। दूरदर्शन और आकाशवाणी से कविताओं का नियमित प्रसारण। हिन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। बातचीत, आलेख, अनुवाद, लघुकथा, चित्रांकन, समीक्षा भी प्रकाशित।
- पुरस्कार/सम्मान : बिहार सरकार का राजभाषा विभाग, राष्ट्रभाषा परिषद पुरस्कार तथा बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘कवि कन्हैया स्मृति सम्मान’ के अलावा दर्जन भर से अधिक महत्वपूर्ण पुरस्कार/सम्मान मिले हैं।
- संप्रति, बिहार विधान परिषद् के प्रकाशन विभाग में सहायक हिन्दी प्रकाशन।
- संपर्क : हुसैन कॉलोनी, नोहसा बाग़ीचा, नोहसा रोड, पेट्रोल पाइप लेन के नज़दीक, फुलवारीशरीफ़, पटना-801505, बिहार।
मोबाइल : 09835417537
ई-मेल : shahanshahalam01@ gmail.com

पुस्तक : प्रतिपक्ष का पक्ष ( आलोचना) , सुधीर सक्सेना – प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य ( आलोचना), समय के बीजशब्द ( आलोचना ), पाठक का रोज़नामचा ( आलोचना ), कविता पथ ( आलोचना ), सहमति के पक्ष में ( प्रकाशकाधीन आलोचना )
प्रकाशन : हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं जैसे चिंतन दिशा, व्यंजना, कृति ओर, हिमतरु, नयापथ, हंस, प्रयाग पथ, मंतव्य सप्तपर्णी, दुनिया इन दिनों, स्वाधीनता, वर्तमान साहित्य, जनपथ, लहक, प्राची, लमही, सुखनवर, जनसंदेश टाइम्स, लोकलहर, रस्साकसी, अनहद, माटी, वसुधा, यात्रा, लोकोदय, बाखली, प्रसंग बिहान, मंतव्य, छत्तीसगढ़ मित्र, बुन्देलखंड कनेक्ट आदि में आलेखों का प्रकाशन |
महत्वपूर्ण ब्लॉगों में प्रकाशन, लोकविमर्श ब्लॉग एवं आलोचना पत्रिका का लोकविमर्श का संपादन।
पता : द्वारा, गऊलाल डाकिया, प्रधान डाकघर अतर्रा रोड बबेरू, जनपद बाँदा-२१०१२१ ( उत्तरप्रदेश )
इमेल – umashankaersinghparmar@ gmail.com
फोन – ०९८३८६१०७७६
शहंशाह आलम
इस हफ्ते के कवि : उमा शंकर सिंह परमार
हमारे समय का सबसे ख़तरनाक सच है
जब किशोरी साहू भूख से मुठभेड़ करते हुए
फाँसी पर चढ़ रहा था
उसी समय वे उत्तर सरंचनावाद के
शिल्प पर बहस कर रहे थे
यह भी सच है
जब बैंकों ने थमा दी थी
ज़मीन नीलाम होने की नोटिस
तब वे करीना कपूर के गर्भवती होने की सूचना पर
ट्विटर में बधाई दे रहे थे
सच यह भी है
जब बरस रही थीं पुलिस की लाठियाँ
जेलें भर चुकी थीं
श्मशान ऊब चुके थे
चिताओं ने लाशों के ख़िलाफ़ हड़ताल कर दी थी
तब वे गाँव में चने की ताज़ा भाजी का सौन्दर्यबोध
फ़ेसबुक में समझा रहे थे
सच तो यह भी है
कि तुमने कभी मेरी ज़रूरत नहीं समझी
न मुझे कभी लगा कि मुझे तेरी ज़रूरत है
तुम अपने सौन्दर्यबोध के साथ
अपने शब्दों से पहचाने जाते रहे
और मैं जीवित कविता बनकर
बार-बार अपने शब्दों के साथ
चिता में सुलगता रहा।
– उमाशंकर सिंह परमार
यह ऐसा वक़्त है कि जिसे देखो वह ‘सावधान की मुद्रा’ में चल रहा, उठ-बैठ रहा, हँस-बोल रहा दिखाई देता है। इसका कारण सीधे-सीधे आज की राजनीति है, जिसने सबको असुरक्षित कर दिया है। ऐसा इस वास्ते है कि बड़ी, भारी और चमचम कुर्सी पर बैठने वाले राजनीतिज्ञ ख़ुद सुरक्षा के कड़े घेरे में जो रहने लगे हैं। मुझे अकसर इस बात को लेकर हैरानी होती है, अचरज होता है, भौंचकपना भी मेरे अंदर घर कर जाता है कि जो व्यक्ति कभी भैंस चरा रहा होता है, चाय बेच रहा होता है अथवा कोई और लोचा-वोचा कर रहा होता है, सत्ता की चाभी पाते ही सीधे ज़ेड श्रेणी के सुरक्षा-घेरे में चला जाता है। अब आप इस सुरक्षा-घेरे को सम्मान और स्वीकृति भले देते रहे हों, मैं इसे उस व्यक्ति की कायरता बूझता रहा हूँ। भई, हमने तो आपको हमें सुरक्षा देने की ख़ातिर सत्ता के शीर्ष पर बैठाया था। आप हो कि ख़ुद को सुरक्षा के मज़बूत घेरे में डालकर हमारा यानी हम निरीह जनता का मुँह चिढ़ाना शुरू कर देते हो, यह जताते हुए कि तुम निरीह जनता जाओ तेल लेने। यानी जनता जिसे वोट देकर संसद या विधान सभा भेजती है, वही जनता का असली शत्रु हो जाता है। हद यह भी है कि अब कोई किसी पार्टी का अध्यक्ष अगर बना दिया गया है तो वह भी ज़ेड श्रेणी के सुरक्षा-घेरे का हक़दार हो जाता है। अब आप ही दिमाग़ पर ज़ोर देकर बताइए कि कोई पार्टी अध्यक्ष किस हैसियत से ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा पा लेता है? यहाँ आपको मेरा सवाल अटपटा लगे तब भी मैं यह ज़रूर जानना चाहूँगा कि और मुल्कों में भी ऐसा ही होता है क्या? सच कहिए तो कवि उमाशंकर सिंह परमार भी, उनकी भाषा, उनके शब्द, उनकी कविताएँ भी इसी सबकुछ का हिसाब माँगती हैं। अब आप मुझे अथवा कवि उमाशंकर सिंह परमार को पगलेट कहिए या सत्ता विरोधी कहिए या देश द्रोही कहिए, मुझे और मेरे प्रिय कवि उमाशंकर सिंह परमार को इस बात का उत्तर चाहिए ही चाहिए कि आज हमारे प्यारे मुल्क के प्यारे अवाम के चेहरे पर हवाइयाँ क्यों उड़ती दिखाई देती हैं :
हत्या को हत्या कहना
संज्ञेय अपराध है
हत्यारे के ख़िलाफ़
किसी भी क़िस्म का बयान
देशद्रोह
विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र में
अब सबका साथ
सबके विकास का
अध्यादेश जारी कर दिया गया है
जो साथ नहीं देगा
वह मारा जाएगा
भूख से चबाई गई हड्डियों को
ज़िंदा शरीर में बदल दिया गया है
शिराओं में खौलता युवा रक्त
भीड़ में तब्दील होते मुर्दे
अतीत का उत्खनन
विकास की बेहद ज़रूरी शर्त है
जिन्हें भूखे रहने की आदत नहीं है
वो कामयाबी की राह में
सबसे बड़ा रोड़ा हैं
जिन्होंने सरकारी आह्वान पर
अपना हक़ नहीं छोड़ा
वे देश छोड़कर जा सकते हैं
विकास के लिए
ड्रेस कोड
विकास के लिए
लाठीचार्ज , अदालत , सेना , मुकदमे
हम विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं।
सच कहूँ, हमारे अपने मुल्क के पास भविष्य के बारे में सोचने की फ़ुर्सत नहीं है। इस बात के लिए फ़ुर्सत ज़रूर है कि कोई मेरा क़त्ल करे, क़त्ल करते हुए लाइव वीडियो बनाए और फ़ख़्र से वीडियो में यह भी कहे कि भारत जैसे सहिष्णु देश में रहना है तो मुझ जैसे क़ातिलों के रहमो-करम पर रहना होगा। हो क्या गया है हमें, क्या ऐसे ही हत्यारे सपनों के भरोसे अब हम ज़िंदा रहेंगे? क्या आपका सहिष्णु हृदय आपको इस बात के लिए लानत-मलामत नहीं करता कि आप भी उस क़ातिल की मुख़ालफ़त में खड़े होते? यह भी सच है कि आपके साथ ऐसा सचमुच नहीं होता होगा। ऐसा होता तो कोई क़ातिल इस तरह के वारदात को अंजाम देने से पहले हज़ार दफ़ा सोचता। जब तक हत्यारे सपने ज़िंदा रहेंगे, ऐसे सपने आपसे और मुझसे ऐसे ही नफ़रत करते रहेंगे। ज़रूरी यही है कि हम मिलकर हत्यारे सपनों को देखे जाने से पहले कुचल दें। कवि उमाशंकर सिंह परमार अपनी कविताओं के सपने के माध्यम से यही समझाना चाहते हैं। कोई कवि अपने सपनों को छिपाता नहीं है। कवि उमाशंकर सिंह परमार का सपना यही है कि जो हत्यारे हैं, वे मारे जाएँ, ना कि वे जिनकी हत्याएँ मुल्क भर में दनादन की जा रही हैं। कवि अगर आप हैं, तो आप भी ऐसा ज़रूर सोचते होंगे। इसलिए कि हर कवि निहत्था रहते हुए भी निहत्था नहीं होता। उसके पास कविता की ताक़त रहती है। इस ताक़त यानी इस साहस के भरोसे हर कवि हर हत्यारे से भिड़ सकता है। कवि उमाशंकर सिंह परमार आपको हमेशा हत्यारे से भिड़ने को प्रवृत्त करते हैं और आप हैं कि अकसर उस हत्यारे की तरफ़दारी में खड़े हो जाते हैं, यह सोचते हुए कि चलो एक और मलेच्छ का, एक और नीच जाति का अपने सहिष्णु देश से ख़ात्मा ही तो इस बेचारे हत्यारे ने किया और इन मलेच्छों, इन नीचों के अलावा यह बेचारा हत्यारा कहाँ किसी को मार पाया आज तक! ऐसा सोचना आपकी समझदारी हो सकती है लेकिन कवि उमाशंकर सिंह परमार की समझदारी यही कहती है कि ये घटनाएँ निंदनीय हैं और हमेशा निंदनीय ही रहेंगी :
अभी कुछ दिन पहले
पत्थर के बुत
जो लम्बे समय से
बहिष्कृत थे पूजा से
इंसान बनने की कोशिश में
अचानक
हत्यारों में तब्दील हो गए
वे लोग
पुराने पड़ चुके इतिहास से विक्षुब्ध
सब कुछ एक झटके मे
बदल देना चाहते हैं
जब कभी करीब आया अतीत
अतीत के हमशक्ल
क़रीब आ जाता है
तीव्र असुरक्षा बोध
भयग्रस्त कुंठाएं
वे लोग बाज़ार की भाषा में
पौराणिक यशोगान
दोहराने लगते हैं
विचारों के रेगिस्तान में
नंगे खड़े वे लोग
क़ब्रिस्तान में सदियों पहले
दफ़न हो चुकीं लाशों को
ज़िंदा करने के लिए
अपने अघोषित आदर्शों के विरुद्ध
घोषित हड़ताल में जा रहे हैं।
जिस दिन आप पहली कविता लिखते हैं, उसी दिन से आप उस सैनिक के जैसे हो जाते हैं जो अपने देश की रक्षा में दिलो-जान से लगा रहता है। मेरी नज़र में हर कवि सैनिक है जो दुनिया के हर मोर्चे पर पूरी ईमानदारी से लगा रहता है, दुनिया के किसी भी सैनिक से कुछ ज़्यादा सजग, कुछ ज़्यादा सक्रिय। कवि उमाशंकर सिंह परमार ऐसे ही सैनिक कवि हैं। और ऐसा होना समकालीन हिंदी कविता के लिए अच्छी बात है। इसलिए कि आज अपने देश में दमनकारी नीति चलाई जा रही है। हम सत्ता की ऐसी नीतियों को जान-समझकर भी नज़रअंदाज़ करते फिर रहे हैं। लेकिन कवि उमाशंकर सिंह परमार दुनिया भर की सरकारों की इन नीतियों की मुख़ालफ़त करते हैं। नेल्सन मंडेला ने कहा भी है, ‘जो लोग सहज ही बहुत सरल और विनम्र होते हैं, पूरी दुनिया उनका सम्मान और सराहना करती है। ऐसे ही लोग ज़ात-पात, रंग-मज़हब का भेद भूल मनुष्यता की मूल भावना में विश्वास रखते हैं। जाने-अनजाने ऐसे असँख्य लोग हैं, जिन्होंने अब भी किसी भी क़िस्म के मानवाधिकार उल्लंघन के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी हुई है।’ उमाशंकर सिंह परमार ऐसे ही विश्वास से भरे कवि हैं। कहीं से कोई असहनीय स्वर सुनकर आप जिस तरह मर्माहत होते हैं, कवि उमाशंकर सिंह परमार इस असहनीय समय की नब्ज़ थामते हैं और इलाज भी करते हैं :
उन्हें सब कुछ
बदल देने की जिद है
आपको
हमको
और उन्हें भी जो
गर्भ मे पल रहे हैं
भूमिकाएँ
तथ्य
भंगिमाएँ
और इतिहास
उन्हें सब कुछ
बदल देने की ज़िद है
दो पैर
दो हाथ
एक सिर वाले
समूचे आदमी को
आदमख़ोर
बना देने की ज़िद है
उन्हें सब कुछ
बदल देने की ज़िद है।
” जिस दिन आप पहली कविता लिखते हैं, उसी दिन से आप उस सैनिक के जैसे हो जाते हैं जो अपने देश की रक्षा में दिलो-जान से लगा रहता है।”
कवि को सैनिक कहने के अपने जोखिम है और एक तरह से अति साहस का कार्य है, बधाई शंहशाह जी.
मौजूदा हालात से मुठभेड़ करते कवि,और शासकों से सवाल करती उनकी कविताएं , कविताएं इस मंच से प्रतिरोध में एकजुटता दिखा रही हैं ,शुभ संकेत काआसार ,लिट्ररेचर पोवाइन्ट को हार्दिक धन्यवाद्