नीलिमा शर्मा की कहानी ‘लम्हों ने खता की’
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर
जिन्दगी के उपवन में हर तरीके के इंसान होते हैं। उन इंसानों में एक जात लड़की जात भी होती है । हर तरह के रंग,रूप, स्वभाव की लड़की । कच्ची उम्र में जड़ें तोड़ दी जाएँ तो पौधे की तरह पनपती नहीं है बोनसाई बन जाती है या मुरझा जाती है । कभी जड़ें जमीन पकड़ कर अपना रंग रूप कद निखारने को होती ही है कि माली उसके लिए नयी जमीन तलाशना शुरू कर देता है। कब कैसा मौसम उन पर अपने रंग दिखा दे, कुछ कहा नहीं जा सकता । जिदगी में धूप और छाँव का मौसम आता जाता रहता है। लड़की की जिन्दगी भी ना जाने कितने मौसम लेकर आती है। जब एक तरह के मौसम की अभ्यस्त होने लगती है कि मौसम का दूसरा रंग बदल जाता है और वह घूमती रहती है। अपने आप को सम्हालने की अनथक कोशिश करती है । भावनाओं की नदी ओवरफ्लो होकर उसकी संवेदनशीलता पर हावी होकर एक ऐसे समंदर में जा मिलती है, जहाँ से बाहर निकल आने का कोई रास्ता नहीं होता और यह जब अतिरेक रिश्तों के ताने-बाने से से होकर गुजरता है तो नेह के बंधन टूट जाते हैं और परिणामत: चित्त आर्तनाद कर उठता है और तब होती है बगावत। … कभी प्रत्यक्ष रूप से , कभी परोक्ष रूप से
…
गाड़ी की सीटी २ किलोमीटर दूर से भी सुनायी दे रही थी और सरोज हॉस्पिटल के विजिटर रूम में आत्मालाप कर रही थी । चेहरा आंसुओं से भीगा था । कुम्हलाई सी मोगरे की कली के जैसे उसकी जड़ें उखड़ चुकी थी ।
उसकी मुट्ठी खाली थी। दर्द थे कि गहरी नदी में गाद की तरह जम गये थे। आंसुओं का सैलाब उमड़ रहा था । दर्द बेहद था और लाइलाज था यह दर्द अब ।
बाहर भीड़ जमा हो रही थी लेकिन वो सबसे दूर अकेले यादों के बियाबान में विचरण कर रही थी ।
घर के उस स्टोरनुमा कमरे में सरोज को दुल्हन बना कर लाया गया था। लाल सुर्ख जोड़ा उसके गोरेचिट्टे रंग पर खूब फ़ब रहा था। हाथों में लाल चूड़ियाँ और गहरी रची मेहंदी, बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें, उस पर सुतवा नाक, गुलाब की पंखुरी जैसे होंठ,पूरे गाँव में उस जैसी रूपसी बहू आजतक नहीं आई थी । मीर शायर शायद कोई उस जैसी देखे होंगे तो कह उठे होंगे
मीर इन नीम बाज आँखों में सारी मस्ती शराब की सी है
नाजुकी उनके लबों की क्या कहिये पंखुरी इक गुलाब की सी है ।
गरीब घर की बेटी सरोज ने सिर्फ आठवीं तक पढ़ाई की थी, उसमें भी इंग्लिश में उसकी कम्पार्टमेंट आयी थी। एक गरीब बाप की दौलत उसकी बेटी होती है। उस पर अगर बेटी खूबसूरत हो तो उस दौलत को अवैध रूप से कब्जाने को बहुत से लोग अपने दांव खेलने लगते है। बिना माँ की बेटी का बाप कितना भी ख्याल रखे ,कब आँख से ओझल हो जायेगी इसका खटका लगा रहता।
उत्तरप्रदेश के बहुत छोटे से गांव बझेड़ी में माहौल ही कुछ ऐसा था कि जब बेटियाँ १५ बरस की उम्र पार करतीं तो शोहदों की आँखें भी चमकने लगती हैं। कच्चे मांस की मादक खुशबू उनके नथुने में भर कर उन्हें शिकार के लिए आमंत्रित करती सी लगती है और ये शोहदे अगर अपने पर नियंत्रण कर ले तो वो इंसान ही न कहलाने लग जाएं ! बेटी की बढ़ती उठान से परेशान पिता रामभरोसे अपने छोटे से कोठरे में हुक्का पीते हुए सोचता कि कहाँ से लाएगा अपनी इतनी समझदार बेटी को ब्याहने के लिये पैसा? दो बीघा जमीन ही तो है, वह भी उसकी माँ के इलाज़ के लिए प्रधान के पास गिरवी रखी थी , मूल तो दूर ब्याज भी चुकता नहीं हो पाता है । अब किसी दिन प्रधान जी से कहना होगा कि जमीन बेचकर अपना मूल धन ले ले और बाकी के बचे पैसे उसे दे दे ताकि वह भी बेटी के हाथ पीले करके गंगा जी नहा आये । रामभरोसे हुक्का गुड़गुड़ाते हुए सोच रहा था कि अगर ईश्वर ने उसको बेटी ही देनी थी तो पत्नी को तो नहीं बुलाता,कम से कम माँ बेटी को सम्हालती तो सही। एक दो बेटे होते तो घर में दहेज़ भी आता, बिटिया का ब्याह उसी से हो जाता।
बाहर से किसी ने “रामभरोसे. अरे ओ रामभरोसे” आवाज़ लगायी। लापरवाही से उसने अनसुनी कर दी, परन्तु जब आवाज़ फिर से उसके कानों में गूंजी तो उसने झटके से अपनी घिसी हुई लोई को लपेटा और बाहर आया।
” राम राम प्रधान जी !! सौ बरस की उम्र थारी , बस इबी आप को ही याद कर रेया था !!!”
” क्यों राम भरोसे !! पैसे का इंतज़ाम हो लिया के ? जो ब्याज चुकाने के लिये म्हारे को याद कर रहा था !”
“नहीं मालिक ! हम छोटे लोग ,कहाँ से लियाये पैसा ? मैं तो जवान हो रही छोरी की चिंता में गांव से बाहर भी काम करने नहीं जा रीया ! “
” तू पैसे चुका सकता है तो बात कर वर्ना तेरी लड़की के ब्याह का तो मैं इंतज़ाम कर दूँ !!”
” मालिक आप तो म्हारे माई बाप हैं “
” चोखा लड़का देख के बस म्हारी छोरी का ब्याह करा दो, यो बस इज्जत से अपने सासरे चली जाए, मैं भी इब कतेक दिन का मेहमान रह गया, “एकला जना बाकी की जिन्दगी काट लूंगा इसकी माँ ने याद करके !”
कहते कहते राम भरोसे की आँखों में आंसू आ गये।
प्रधान जी अपनी स्वर्गवासी बहन के छोटे बेटे के लिये सरोज का हाथ मांगने आये थे। ठीक ठाक जमीन थी, एक आम का बाग था। पैसे वाले लोग थे । बड़े बेटे मनोज का ब्याह एक पढ़ी लिखी लड़की मनीषा से आज से दस बरस पहले किया था। उस लड़की ने ससुराल में रहकर पी सी एस के एग्जाम दिए थे और अब पीलीभीत में जिला निबंधन अधिकारी के पद पर कार्यरत थी। उसको सरकारी गाड़ी रूतबा मिल जाने पर अब ससुराल पति सब हेय लगते थे। किसान पति को उसने हाउस हस्बैंड बना कर रखा हुआ था जो उसकी बड़ी होती लड़कियों का ख्याल रखता। इसलिए अब परिवार को दूसरे बेटे अनुज के लिये कम पढ़ी लिखी, किसी गरीब लड़की की दरकार थी। छोटा बेटा शराबी और जुआरी था। खेत की कमाई हाथ आते ही सबसे पहले ठेके पर जाकर किसी भी अंग्रेजी लेबल की शराब पीनी होती थी । जीजा को गरम रोटी और भानजे को शाम को घर आने का बहाना मिल जाए। सो राम भरोसे की बेटी को दुल्हन बनाकर गाजे बाजे के संग लाया गया।
मेमसाहेब बनी जेठानी ने अपने पति को तो एक माह पहले आने दिया परन्तु खुद ऐन मौके पर आयी और रूपसी देवरानी से जलभुनकर पति को वापिस लेकर तुरंत लौट गयी। दबंग पत्नी के सामने बड़े बेटे मनोज की बिलकुल नहीं चलती थी ।
छोटा बेटा अनुज बहुत खुश था कि उसका ब्याह हो गया। घूँघट में लिपटी बहू का मुँह देखने को बार बार कमरे के चक्कर लगाता तो मोहल्ले भर की भाभियाँ द्विअर्थी मजाक से उसको बाहर का रास्ता दिखा देती। पूरी शाम उसने ठेके पर यारों संग अपनी शादी की ख़ुशी मनाई और भद्दे मजाक करके बीवी का बल खाती देह का वर्णन किया। सब दोस्त चटकारे लेकर उसको बीवी को अपने पुरुषत्व से बस में रखने के ढेरों नुस्खे और तरीके सुझाने लगे ।
पिया मिलन की रात फ़िल्मी सी रात होगी, ऐसे सपने संजोये सरोज ने अपने कमरे में कदम रखा । उसके बिस्तर पर नयी चादर बिछी थी लेकिन वो फूलों से सजी सेज , मधुर संगीत , खुशबु कहीं नहीं थे । कच्ची उम्र का पहला रूमानी सपना धराशायी हो गया था । लेकिन ‘जिन्दगी में सबकुछ फिल्मी तो नहीं होता न’ सोचकर आईने के सामने सरोज ने अपनी बिंदिया को हाथ की तर्जनी से अच्छे से चिपकाया। लाल लिपस्टिक को और गहरा किया । पाउडर की एक परत और लगाकर मेकअप बॉक्स से चार्ली का सेंट बिस्तर के साथ साथ खुद पर छिड़क कर खुद को आईने में निहारा और एक लट बालों की सामने की तरफ लहरा दी। अब आते ही होंगे अनुज, मैं उनको कमरे में अनु कहकर पुकारा करुँगी। सोचकर ही शरमा गयी ।
जोर की खट से अनुज कमरे में था ,ऐसे लगा जैसे किसी ने उनको जबरन कमरे में धक्का दिया हो । सरोज उसको सहारा देकर बिस्तर पर लायी तभी शराब का एक तेज तीखा भभका उसकी सांसों में भर गया। और मन ख़राब हो उठा। अनुज तो आते ही बिस्तर पर ढेर हो गया।..
पलंग के दूसरे कोने में लेटी हतप्रभ स्तब्ध सी सरोज की कब आँख लगी वह नहीं जानती थी । पति के इस रूप ने उसे निराश कर दिया था । अचानक आधी रात को बदन पर रेंगते पुरुष हाथों की मजबूत पकड़ ने उसे कुछ बोलने का मौका भी नहीं दिया और इसी तरह की ज़बरन प्रेम की अगली कई रातों के बाद उसको मालूम हुआ कि बीज उसकी कोख की जमीन में रोपने के सपने बुने जा रहे हैं, “ मन्ने तो बस छोरा चाहिए वो भी दसवें ही महीने में “ कहकर रोजाना उसके शरीर का मर्दन करता अनुज उसके कच्चे सपनों को अपने आवेगों की नदी में बहा ले जाता था , लेकिन पीछे रात भर सरोज के अतृप्त मन में शेष रह जाता था। एक स्तब्ध सा कोरा और कुंवारा मन जो कुछ भी समझ नहीं पा रहा था ।
एक ही माह की ब्याही दुल्हन के हाथ चूल्हा जलाते हुए अपने सपनों को भी उसमें एक एक करके स्वाहा होते देखने लगते थे ।ब्याह के सपने कच्ची उम्र से लड़की की पलकों की झालर पर टंक जाते हैं और जब सब सपने पूरे नहीं होते तो ओस की माफिक हर बूँद एक एक कर आंसू में घुल कर उसे मोती बना देती है और इन सच्चे मोतियों की माला को गूंथकर उम्रभर को सीने में पहन लेती हैं। अनुज शराब के नशे में धुत्त रहता, कोई भी काम धंधा न करता, काश्तकार जमीन से इतनी कमाई तो करके ला देते थे कि उसकी ऐश के बाद भी घर बहुत आराम से चल जाता था । वैसे भी गरीब की बेटी को अभी पैसे खर्च करने से ज्यादा पैसे देखने में ही सुख प्राप्त होता था । घर के बुजुर्ग को भी समय से खाना पीना मिल रहा था बस उनके लिए इतना ही काफी था ।
दसवें माह में सरोज ने चाँद से बेटे को जन्म दिया तो दो बेटियो की मां उसकी जेठानी मनीषा की ईर्ष्या का कटोरा लबालब आग उगलने लगा था ।कुआं पूजन के समय आई जेठानी का अपने पति मनोज के प्रति हेय भाव देखकर सरोज का मन उसकी तरफ से कसैला हो गया । अपने सब काम खुद करते जेठ जी उसे देवता जैसे लगते।
दोनों भाई एक दम विपरीत थे जहाँ एक की सुबह,” तेरी माँ की …! “मादरचो** अभी तलक चाय क्यूँ न बनी” से शुरू होती तो दूसरे की सुबह पानी की सब बाल्टियां गर्म पानी से भरने रसोई में सब्जी क्या है, क्या ख़तम हो गयी, देखते होती थी। सरोज जितनी भी जल्दी उठ जाने की कोशिश करती, जेठ जी उसके पहले उठे होते और लोई ओढ़े चौके में अपनी चाय बना रहे होते। अक्सर सुबह पांच बजे सर्दी से कोई भी भला मानस रजाई से बाहर मुँह नहीं निकालता था ।लेकिन मनोज चाय बनाकर रसोई में आयी सरोज को भी पकड़ा देता कि “बहू तू भी गर्मागर्म पी।
रिश्ते न उम्र के मोहताज होते हैं ना समय के ही। रिश्ते संवेदनाओं के मोहताज होते हैं। दर्द से पनपे रिश्ते बहुत जल्दी जुड़ जाते हैं, उस पर जब दर्द एक सा हो, तो रिश्तों में समीपता आत्मीयता भी बढ़ने लगती है। स्त्रियां स्वभाव से कोमल होती है और सामने वाले के अनकहे कोमल भाव उनको आकर्षित भी करते हैं।
पुरुष से प्रेम मिलता रहे तो मजबूत चट्टान सी स्त्री हर मुसीबत का सामना करती रहती है और जब संवेदनाओं के स्तर पर अकेले हो जाए तो जरा सा भी जोर उन्हें बालू के कणों की तरह बिखेर देता है। उनकी मजबूती प्यार के दो लफ्ज़ या सहानुभूति की आवाज़ से ही पिघल जाती है। पत्थर बना मन एक गरम लावा बनकर उनके मन के बरसों से सुप्त ज्वालामुखी से बाहर आने लगता।
मनोज हर बरस कुछ दिन के लिए ही गांव आता था। सुकून से पिता के साथ बातें करता, खेत खलिहान का हिसाब देखता। और कुछ दिन के गाँव(मायके) प्रवास के बाद जब पत्नी के पास लौटता उसका मन बुझ जाता। वहां प्रेम आत्मीयता का सर्वथा अभाव था ।
सिर्फ स्त्री ही नहीं पुरुष भी प्यार के भूखे होते हैं। हर हृदय पाषाण नहीं होता। अपने घर के अफसरी माहौल और चिकचिक से दूर यह कुछ दिन उसे जीने को प्रेरित करते। उसका दिल बार बार अपने गांव / अपनी जड़ों की तरफ खींचा चला आता।
अब तक साल में एक बार आने वाला मनोज पिता की बीमारी का बहाना बनाकर साल में दो बार गांव आने लगा। अफसर पत्नी को भी अब उसकी ज्यादा परवाह नहीं थी। मेरा पति गांव में खेती करता कहकर समाज में धाक ज़माने वाली पत्नी भी अब उसे जबतब ससुराल भेज देती। बच्चियां अब होस्टल में पढ़ रही थी। इधर सरोज भी दो बच्चों ( एक बेटा /एक बेटी) की माँ बन चुकी थी। मनोज कब ताउजी से बच्चों का बड़े पापा बन गया पता ही नहीं चला और बच्चे उसके आने का इंतज़ार करने लगते। अपने पिता को कभी उन्होंने पूरे होशोहवास में नहीं देखा था। शाम ढलते ही नशे में धुत्त रहता। उनका पिता अनुज सिर्फ उनका जैविक पिता था। कभी सर पर प्यार का हाथ भी नहीं देखा था उन्होंने। पैसे की आमद घर में बढ़ रही थी। अनाज के दाम भी अच्छे मिलने लगे तो सरोज के बदन पर अब सोने की मात्रा भी बढ़ने लगी थी। अपनी मनमर्ज़ी से उसकी देह का भोग करना और फिर उस देह पर सोना लाद देना , बस इतना ही पति धर्म निभाता था सरोज का पति।
बच्चे अब बड़े हो रहे थे ।कहीं घूमने चलो न कहकर जब तब सरोज को परेशान किये रहते थे। सरोज के पिता का भी देहांत हो चुका था, मायका अब बचा ही कहाँ था जो चार दिन के लिए बच्चों के साथ चली जाती ।बड़ी मुश्किल से उसने ससुर जी और अनुज को मनाया कि कुछ तीर्थ कर आते हैं। अंतिम क्षण में अनुज ने मना कर दिया तो रात्रि का सफर है कहकर मनोज उनके साथ चलने को राजी हो गया । इन्नोवा की पिछली सीट पर बच्चे कब के सो गये थे। आगे सीट बेल्ट बांधे ससुर जी ऊँघ रहे थे । ड्राइवर अपनी धुन में गाड़ी चला रहा था। बीच की सीट पर मनोज के संग बैठी सरोज अनुज के ना आने से चुपचाप थी, दिन भर की थकान, बच्चों की तैयारी उस पर पहली बार इतना दूर का सफ़र। कब अपनी दुपट्टे को सर पर ओढ़े सो गयी उसे पता न चला।
अँधेरी रात को चलते सफ़र में सरोज ने अपने सर पर एक कोमल स्पर्श महसूस किया जो उसे स्वप्निल महूसस हो रहा था। ऐसा मीठा स्पर्श ! सरोज ने हौले से आँखें खोली और महसूस किया कि वह जेठ मनोज के कंधे पर सर रखे सो रही है और जेठ जी उसके सर पर प्यार से थपथपा रहे हैं। उसने एकपल को झटके से हट जाना चाहा पर मन थोडा बेईमान हो गया, चोरी से मिले इस आलौकिक स्वर्गिक सुख को कैसे जाने दे। यूँ ही अनजान सी वह कंधे पर सर रखे उस आनंद में झूमती रही और गहरी नींद सो गयी।
सुबह जब इन्नोवा हरिद्वार पहुंची तो सरोज को अपना मन बहुत हल्का सा महसूस हुआ । उसने जेठ जी तरफ देखा तो उनको भी अपनी तरफ देखते हुए पाया । झट से नजर फेर कर वह बच्चों की तरफ मुड़ गयी।
मौसम करवट बदल रहा था , गंगा घाट पर सैर करती सरोज आज बहुत प्रफुल्लित महसूस कर रही थी। पैसे से उसको कभी कोई कमी महसूस नहीं हुयी थी परन्तु दिल के अलग रंगों उमंगो से खेलने वाला भी तो कोई हो , उसकी हर हाँ में हाँ मिला देने वाले नशेड़ी अनुज से अब उसे अब नाममात्र का लगाव था ।कुछ रिश्ते जिए नहीं जाते ढोए जाते है उनके भीतर का खोखलापन किसी को दिखायी नहीं देता ।
मार्च का महीना था पर जैसे सावन की झड़ी लग गयी हो बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी सर्द हवाए भीतर तक चीर रही थी। दो दिन के हरिद्वार प्रवास में सरोज और मनोज एक दूसरे के मन को पढ़ने लगे थे । समझने लगे थे एक दूसरे के मन के खालीपन को । बच्चे अपने बाबा के साथ गंगा मैया की बातें करते तो मनोज और सरोज एक दूसरे की ख़ामोशी पढ़ते और आँखों से एक दूसरे को मैं समझ सकता हूँ\ सकती हूँ का आश्वासन देते से लगते थे ।
“साली कुतिया मुझे इकला छोड़ तीर्थ को क्यूँ गयी थी “ कहकर अनुज ने उनके वापिस आते ही उसको बात बेबात गाली देनी शुरू कर दी और चूल्हे पर रोटी पकाती सरोज की पीठ पर दो चार धौल जमा दिए तो बड़ी मुश्किल से मनोज ने अनुज के हाथों से सरोज को बचाया। गाली बकता अनुज शराब पीने दोस्तों की महफ़िल में चला गया । सरोज देर तक अपने कमरे में बन्द रही कहीं कोई अनहोनी न हो जाए तो मनोज ने धीरे से दरवाजा खटखटाया
” रो रही थी !!”
“नहीं तो …..!”
” आँखें क्यों लाल है फिर !!”
” साबुन चला गया था। आपको खाना परोस देती हूँ , वो भी आते ही होंगे “
” वो अभी पीने गया है और बच्चे भी तो गाँव भर में प्रसाद बांटने गये हैं “
“मुझे चाय पिलाओगी न”
“जी बिलकुल” कहकर जैसे ही दुपट्टा सर पर रखने का प्रयास करती सरोज पलटी तो उसका पैर टेबल से टकराया और पास ही बेड पर बैठ गयी। नाख़ून पर हलकी सी चोट थी। सामने ही डिब्बे में बैंडेज थी. उसको लगाने के लिये जब मनोज ने पैर को हाथ लगाया सरोज के स्पर्श से उसका बदन सिहर उठा। एक अर्से बाद एक स्त्री शरीर को छुआ था उसने।पत्नी मनीषा तो अब उससे अलग दूसरे कमरे में देर रात काम करके कब सोती थी उसको पता ही नहीं चलता था । सरोज ने भी पहली बार एक कोमल स्पर्श को महसूस किया था।
नदी में जैसे पानी का बहाव अचानक ज्यादा हो गया था । बाढ़ आने के आसार हो गये थे बादल भी गड़गड़ाहट के साथ फट जाना चाहते थे। और इस मौसम में अचानक हुयी बरसात ने सारे तटबंध तोड़ दिए , मन की नदी के साथ तन की नदी भी पुलकित सी हो गयी।
“ए सरोज !!नीचे आ भूख लग रही , रोटी क्या तेरा बाप खा गया सारी” गाली बकता अनुज जब वापिस आया तो दोनों जैसे होश में आ गये ।
सख्त सुवासित देहगंध का नशा सरोज पर तारी था तो पति के पास आती दुर्गन्ध से भी उसे कोई फर्क न पड़ा ।उसको तो थोड़ी देर पहले की सुवासित बारिश याद आ रही थी। रेगिस्तान में जैसे ओएसिस मिल गया था मन को । उस रात उसकी देह को भोग तो अनुज रहा था लेकिन मन से उसने यह सुख मनोज के साथ भोगा था । आज उसको एक पल को भी अनुज के अपने पर से उठ जाने की जल्दी नहीं थी । पाप एक बार किया जाये तो अपराध बोध रहता है , लेकिन जब उसको बार बार किया जाए तो गुनाह नहीं लगता उसको तर्कसंगत कहने के मन के अपने तर्क होते है और हर बार पुरजोर तरीके से मन अपने ही मन के उस कोने को कुचलने की कोशिश करता है जिसको लोग आत्मा की आवाज़ कहते है ।
पति जब कोई नशा करता है, ऐश करता है तो अपना गिल्ट कम करने के लिए पत्नी और बच्चों को किसी न किसी रूप में भरपाई करने लगता है या तो एकदम हिंसक हो जाता है या बहुत ज्यादा प्यार करने वाला हूँ –ऐसा व्यवहार करने की कोशिश करता है । अनुज भी सरोज को कभी पैसे की कमी नहीं होने देता। उसके हर उस कहे को मानता जिसमें उसका व्यक्तिगत अहित न हो ।
सरोज का पति शराबी , दो मासूम बच्चों का बचपन और एक अशक्त बुजुर्ग। मनोज घर का सबसे बड़ा पुत्र और समझदार पुरुष ।अकेलापन बार बार गुल खिलाता है और मनोज जो पत्नी के प्यार को तरसा हुआ था , स्त्री देह का कोमल स्पर्श उसे भी उचित अनुचित की परिधि में ना बचा सका और भावनाओं का बांध बार बार टूटता गया , इस बार गर्मी का मौसम एक अलग ही ठंडक लेकर आया था दो दिलो में…. एक सप्ताह के लिए आया बड़ा बेटा इस बार दो महीना रह गया।पिता की अनुभवी आँखें सब देख रही थी, पहचान रही थी बदलते रिश्तों को , पर कौन सुनता उनकी बातें या नसीहतें , कोई कितना भी रूआबदार रहा हो, उम्र उसे मजबूर कर ही देती है चुप रहने को। दिन महीने में , महीने साल में बदलने लगे। अब गांव के चक्कर साल में चार बार लगने लगे। एक सप्ताह का प्रवास कम से कम २० दिन का हो जाता . मनोज और सरोज दोनों के चेहरे पर गुलाबीपन बढ़ने लगा था ..कहते है इश्क और मुश्क कभी भी छुपाये नहीं छुपते,
बच्चे भी छुट्टियों में बड़े पापा को देखते ही खिल उठ’ते थे , अपने पिता से उन्हें पैसा तो खूब मिलता परन्तु साथ बड़े पापा से मिलता , मनोज सब जमीन जायदाद के साथ सरोज की देखभाल एक दम अपनी समझ कर करता। अक्सर शॉपिंग के बहाने सरोज मनोज के साथ बड़े शहर भी जाने लगी थी। समाज के दबे स्वर भी उनको कुछ समझा नहीं पाए न अलग करा पाए
अवैध रिश्तों की उम्र चाहे जितनी भी होती है परन्तु उनका होना हमेशा दर्द जरुर देता है। वो दर्द चाहे पुरानी पीढ़ी भुगते या आने वाली पीढ़ी । यह रिश्ते बनाने वाले लोग कभी इस रिश्ते रिश्ते के दर्द को नहीं पहचान पाते और उस क्षणिक सुख के लिए बहुत सी आत्माओं को उम्र भर का दर्द दे जाते हैं। समाज में एक जहरीली आक्सीजन का प्रवाह होने लगता है जिसमें साँस लेना तो जरुरी होता है परन्तु वो कितनी घातक थी इसका पता भावी पीढ़ियों को लगता है ।
रविवार की दोपहर थी। बाहर लू चल रही थी । बच्चों की छुट्टियाँ चल रही थी ,दोनों एक दूसरे के साथ होने का समय नहीं निकाल पा रहे थे । जिस्म की आग जब सुलगती है तो कोई भी अग्निरोधक काम नहीं करता ,बेटे को बहाने से बाग की सैर और ट्यूब वेल में नहाने का लालच देकर खेत की तरफ भेजा गया और बिटिया रानी को कंप्यूटर पर विडिओ गेम खेलने को बैठाकर दोनों निश्चिन्त थे । बूढ़े चौधरी जी हमेशा की तरह अपनी बैठक में , शराबी पति को न पहले कभी पत्नी की बेवफाई का अहसास था न अब शक हुआ। मौका देख मनोज और सरोज दोनों ही पिछले स्टोर में एक दूसरे की देह में अपने सुख सुकून को खोजने लगे और वासना की सीढियां चढ़ते उतरते हुए भूल गये कि अब वो उम्र के उस पायदान पर पहुँच चुके हैं, जहाँ देह से इतर प्रेम का भी महत्त्व होता है।
‘माँ भूख लगी !! कहती हुयी बिटिया रानी ने माँ को खोजा ।सारे घर में सन्नाटा पाकर “पिछले स्टोर में होंगी” सोचकर उसने जैसे ही दरवाज़ा को खोला सामने बड़े पापा और अपनी माँ को इस अवस्था में देखकर भौंचक्की रह गयी और जोर जोर से चीखने लगी कि अभी ताई मम्मी को बुलाती हूँ अभी छोटे पापा को बुलाती हूँ । आनन् फानन में जैसे तैसे अपने कपड़े पहनते हुए मनोज ने कमरे से बाहर का रास्ता लिया और स्टेशन पर आकर ही साँस ली
सरोज को काटो तो खून नहीं। …। जमीन फट जाये जैसे हालत उसके सामने थे। एक क्षण का दैहिक सुख उम्र भर की तपस्या ख़राब कर गया। बच्चों की परवरिश में तो उसने पिछले 15 बरस में कभी कोई कमी नहीं की थी
बिटिया रानी ने रोते रोते अपने को अनुज के कमरे में बंद कर लिया। सामने रखी दादा की नींद की गोली को पापा की शराब की बोतल संग गटक गयी और वापिस माँ के पास आकर उसने बचपन से पिता के मुँह से सुनी सब गन्दी अश्लील गालियां माँ को दे डाली। शराब के साथ ली गयी नींद की गोलिया असर दिखाने लगी और जहर बनकर शरीर में फ़ैल गयी। हॉस्पिटल में पडोसी और डॉक्टर …… दोनों परेशान कि आखिर इसने ऐसा किया क्यों ? इस वक़्त बड़े पापा कहाँ गये बच्चों के, बिटिया का कहीं चक्कर होगा जो इसने जहर खाया और अनुज शराब पीकर सरोज की परवरिश को गाली दे रहा था बूढ़ा बाबा जार जार रो रहा था और सरोज….. स्तब्ध थी किशोर उम्र की पहली पायदान पर पहुंची बेटी के शव को देखकर …….
पुलिस दरवाज़े पर खड़ी ट्रेन के सामने कटकर आत्महत्या कर चुके एक अधेड़ की पहचान के लिए चौधरी साहेब को आवाज़ लगा रही थी
——
नीलिमा शर्मा निविया
77, टीचर्स कॉलोनी ,गोबिंद गढ़
देहरादून – २४८००१
८५१०८०१३६५
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर

जन्म – 7 मई 1958 , इंदौर
शिक्षा – बी.ई.( सिविल )
जाने माने चित्रकार , लेखक और समीक्षक | कई अखिल भारतीय कला प्रदर्शनियों में चित्रों का चयन और प्रदर्शन| लंदन ,मुंबई , गोवा ,इंदौर , नीमच आदि शहरों में एकल चित्र प्रदर्शनियों का आयोजन | राष्ट्रीय स्तर की पत्र – पत्रिकाओं में हजारों चित्रों / रेखांकनों का प्रकाशन .भारतीय ज्ञानपीठ सहित अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशनों की पुस्तकों के सैकड़ों आवरण|भित्ति चित्रों (म्यूरल्स) के क्षेत्र में अनेक स्थानों / प्रतिष्ठानों पर भव्य म्यूरल्स का सृजनएवं अभिनव प्रयोगों से इस शैली में प्रतिष्ठित कार्य |स्वयं द्वारा नव अविष्कृत शैली ब्रास/ स्टील वेंचर में सृजित अनेक कलाकृतियाँ देश -विदेश के कलाप्रेमियों के संग्रह में संग्रहित |“केनवास पर शब्द ” और जीवन संगिनी श्रीति के साथ संयुक्त काव्य कृति “कुछ मेरी कुछ तुम्हारी “ प्रकाशित होकर देश भर में चर्चित व पुरस्कृत |कविताओं के अलावा निरंतर कला -संस्कृति विषयों और समीक्षाओं का लेखन / प्रकाशन |“जीवन गौरव ” के अलावा देश भर में कई प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित |
संपर्क :११-बी , मेन रोड , राजेंद्रनगर , इंदौर -४५२०१२ (म.प्र.)मो. ९४२५३ १४४२२ / ८०८५३ ५९७७०email :rashinkar_sandip@yahoo.comweb. http://www.sandiprashinkar.com