प्रशान्त तिवारी की 7 कविताएं
by literaturepoint ·

- माएं भी जादूगर जैसी होती हैं
10 रुपए की कमाई में
12 रुपए का खर्च चला लेती हैं
और उसी 10 रुपए में से
3 रुपए बचा भी लेती हैं
उस वक्त के लिए
जब हम बिना सोचे समझे
बिना हिसाब किताब किए
कभी भी माँग लेते हैं रुपया
ये भूल जाते हुए कि
10 में 12 और 12 में से 15
कैसे निकलेगा
हमारा गणित कमज़ोर है
या कमज़ोर दिखने का बहाना करते हैं
लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता
कि
उसी 10 से 12 और 15 बने
कभी-कभी
सोनार की दुकान से भी 12 और 15
बनता है
और उसके बदले
कभी उनका पांव
कभी हाथ, कभी गला
तो कभी कान-नाक
सूना हो जाता है,
सच में माएं
जादूगर होती हैं।
- शब्द तैरते रहते हैं
आकाश में
धरती पर
तुम्हारे मन में
मेरे मन में
शब्द तैरते रहते हैं
हमारे और तुम्हारे ज़ेहन में
मेरे मर जाने के बाद भी
मेरे शब्द दोहराओगे तुम
बार-बार
जैसे अब भी कभी-कभी
दोहराते हो
किसी कवि की कविता को
शब्द तुम्हें झकझोरते हैं
तुम्हें बोलने को उकसाते हैं
हर उस वक्त
जब शब्दों की कमी होती है
तुम्हारे पास।
- एक शरीर था
एक जीता-जागता
चलता-फिरता शरीर
जिसमें जान थी!
पहले उस शरीर के पैर तोड़े गए
अब वह सिर्फ रेंग सकता है
चल नहीं सकता।फिर उसके हाथ की उँगलियाँ तोड़ी गईं,
अब मुट्ठियां नहीं बंध सकतीं
आंदोलनों के लिए।फिर टूटा हाथ,
अब वे भी
किसी की मदद करने को
और किसी को सहारा देने को नहीं बढ़ पाएंगे।छीन ली गई बुद्धि भी,
अब वह सोच भी नहीं सकता
वह अब सिर्फ कठपुतली है।फिर छीना गया
उसका मन
उसका दिल
उसका ज़मीर
और अब वह कुछ भी महसूस नहीं करता
और ना ही उसपर किसी बात का
कोई असर पड़ता है।काट लिए गए उसके कान भी
ताकि वह सुन भी ना सके
सही बातें।
ज़ुबान खींच ली गई,
अब वह चीख भी नहीं सकता!
इसके बाद भी तसल्ली ना हुई
तो फोड़ दी गईं उसकी आँखें
अब से वह देख भी नहीं सकता।बहुत ही भयानक है ये सब,
उससे भी भयानक ये है कि
ये सारी चीज़ें होते हुए भी
उसका कोई उपयोग नहीं रह गया है
सारे अंग निरर्थक से ……- बोझ
कितनी मौतों का
बोझ है मेरे सिर पर
बचपन से लेकर अब तक
कुछ के बारे में सुना
कुछ के बारे में पढ़ा
कुछ आँखों के सामने
मारे गए
कुछ की मौत
तमाशा बनी
कुछ की मौत पर
आग लगी
कुछ मौतों पर
इतना शोर मचा कि
कान बंद कर लिए
अगर न किए होते
तो खून आ जाता कानों से
लेकिन मैं अब भी सुरक्षित हूँ
मुझे किसी ने नहीं छुआ
इतनी मौतों के बाद भी
मुझे कुछ बोझ महसूस नहीं हुआ
और मैं
हिरन की तेज़ी में दौड़ता-फिरता रहा
अब किसी मौत पर
कभी कभी आह भर लेता हूँ
और अक्सर मुंह मोड़ लेता हूँ। …..
- मन
कितना मज़बूत है अपना मन भी
हर क्षण,
एक नए अनुभव
एक नए एहसास
एक नई खुशी
एक नए दुःख
एक नई चाहना
एक नए स्वप्न से
गुजरता है।
इतनी तहों पर एक साथ चलता है
अपना मन,
कितना मज़बूत है
अपना मन भी।
सारी बातों पर उतना ही
सोचता है,
कभी-कभी बह भी जाता है
किसी बात पर,
लेकिन फिर वापस आकर
सबके साथ बैठता है
वक्त बिताता है।
फिर भी,
कितना कुछ सहता-सुनता है
यह मन अपना,
अपना मन कितना कुछ
एक साथ संभालता है,
और हम?
हम,
एक मन भी
नहीं संभाल पाते।
सच है ना,
कितना मज़बूत है अपना मन भी।
6- अपना हाशिया
हाशिए’ पर खड़े लोग
पहचानते हैं
अपनी मुख्य धारा को।
वो फर्क करना
जानते हैं,
अपने हाशिए
और
बनाए गए ‘हाशिए’ में।
उन्हें दर्द होता है,
जब कोई उनको
उनकी मुख्य धारा से
खींचकर ले जाता है
एक गढ़ी हुई ‘मुख्यधारा’ में,
उन्हें पहचान है इसकी।
उन्हें नहीं चाहिए उधार की मुख्यधारा
जो उन्हें
हाशिए पर धकेल देती है।
उन्हें अपना हाशिया
पसंद है।
- खत
वो
अलसाई सी धूप-भरी दोपहर थी
जब मैं बालकनी में
कुर्सी पर बैठकर
तुम्हारा खत पढ़ रहा था
अभी कुछ लफ्ज़ ही पढ़े थे
कि
धूप में नमी महसूस होने लगी
खत पढ़ता गया
नमी बढ़ती गई
और खत के आखिर तक
पहुंचते-पहुंचते
शाम सी हो गई
और रात के डर से
मैंने खत बंद कर दिया
सोचता हूं कभी
कि खोलूं फिर से वो खत
शायद
इस बार
सहर हो जाए |
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