सुभाष पाठक ‘जिया’ की 5 ग़ज़लें
by literaturepoint ·

जन्मतिथि- 15 सितम्बर 1990
शिक्षा- बी एस सी,बी एड,
प्रकाशन : कविताकोश, रेख़्ता, पर प्रकाशन, कादम्बिनी, ग़ज़ल के बहाने,
दो दर्जन से अधिक ,देश की तमाम साहितियिक पत्रिकाओं ग़ज़ल विशेषांकों में ग़ज़लें प्रकाशित,
आकाशवाणी शिवपुरी से समय समय पर काव्य पाठ,
अखिल भारतीय मुशायरों कवि सम्मेलनों में सहभागिता,
एक
इश्क़ अच्छा है फ़क़त ख़्वाबों ख़यालों के लिए
दिल जलाना पड़ता है यारो उजालों के लिए,
हाथ गीता पर क़सम उसकी ज़ुबाँ पर है अभी,
ये मुनासिब वक़्त हैं सारे सवालों के लिए,
वो लिये बैसाखियाँ चढ़ता गया सब चोटियाँ,
और क्या शर्मिंदगी हो पाँव वालों के लिए,
इन फ़ज़ाओं में हवा का होना लाज़िम है बहुत,
तेल ही काफी नहीं रोशन मशालों के लिए,
अपने साये पर भी शक करने लगा हूँ आजकल,
शुक्रिया ऐ दोस्त तुझको तेरी चालों के लिए,
ऐ ‘ज़िया’ उसको विरासत में मिला था जो मकाँ,
रात उसने बेच डाला मय के प्यालों के लिए,
दो
था तक़ाज़ा दोस्ती का आगे बढ़कर रख दिया,
यार ने ख़ंजर उठाया मैंने भी सर रख दिया,
ये इनायत है कि है कोई सज़ा अब क्या कहें,
प्यास देकर सामने ख़ारा समंदर रख दिया,
चाँद जैसा चेहरा है फूल जैसा जिस्म है
ऐ ख़ुदा दिल की जगह् क्यों तूने पत्थर रख दिया,
ख़्वाब पलते थे जहाँ यादें मचलती थीं जहाँ,
नफरतों ने उस जगह् दहशत का मंज़र रख दिया,
रोया था मैं दिल ही दिल में अश्क लेकिन बह गए,
घर से आते वक़्त माँ ने हाथ सर पर रख दिया,
तीन
राज़ दहलीज़ से सड़कों पे न आया होता,
तुमने दरवाज़े पे गर पर्दा लगाया होता,
मान लेता कि हक़ीक़त में सितारा है वो,
रास्ता मुझको अंधेरों में दिखाया होता,
गर शिकायत थी तुझे दूर चला जाता मैँ
यूं ख़फ़ा होने से अच्छा था बताया होता,
फिर वफ़ा होती जफ़ा होती भले होता कुछ
कोई रिश्ता तो मुहब्बत से निभाया होता,
फ़ख़्र से लेता जहाँ नाम तुम्हारा लेकिन,
ख़ूँ सड़क पे नहीं सरहद पे बहाया होता,
ज़िंदगानी में उजाले ही उजाले होते,
इक दिया दिल में मुहब्बत का जलाया होता,
क़ीमत ए वक़्त समझ लेता ‘ज़िया’ पहले तो,
क़ीमती वक़्त न बातों में गवाया होता,
चार
किसी से आस तुझको गर नहीं है
तो दिल के टूटने का डर नहीं है,
उसे रोता हुआ देखा किया मैं
कहूँ कैसे कि दिल पत्थर नहीं है,
यक़ीं जितना किया है मैंने तुझ पर
यक़ीं उतना मुझे ख़ुद पर नहीं है,
ये दिल क्या चीज़ है मैं जान दे दूँ,
तेरी उल्फ़त से कुछ बढ़कर नहीं है,
किया है क़त्ल उसने इस अदा से
कि ख़ूँ का दाग़ दामन पर नहीं है,
हुआ है हादसा अंदर कहीं कुछ,
जो हलचल जिस्म के बाहर नहीं है,
कहाँ जाकर ‘ज़िया’ रोयूँ ग़मे दिल,
कि सहरा में कोई भी दर नहीं है,
पांच
ऐ मेरी जान टूट जाने दे ,
मेरे अरमान टूट जाने दे,
रोकता क्यूँ है आँख में आँसू ,
ग़म की चट्टान टूट जाने दे,
देखना है मैं मरता हूँ कि नहीं,
सारे इम्कान टूट जाने दे,
सोच ले आइना था मेरा दिल
मत हो हैरान टूट जाने दे,
टूट जाने का भी है एक मज़ा,
तू मेरी मान टूट जाने दे,
तू अगर है फ़क़ीर तो क्या ग़म,
घर का सामान टूट जाने दे,
वो ‘ज़िया’ है ये भी भरम,
अब तो नादान टूट जाने दे,