डॉ. मनीष कुमार मिश्रा की कहानी ‘जहरा’
मैं ठीक से नहीं बता पाऊंगा कि उसका नाम जहरा था या जहरी । इतना याद है कि गाहे बगाहे लोग दोनों ही नाम इस्तेमाल करते थे । इस बात से कभी जहरा को भी कोई फ़र्क पड़ा हो, ऐसा मुझे याद नहीं । उस गांव-जवार में जहरा की...
मैं ठीक से नहीं बता पाऊंगा कि उसका नाम जहरा था या जहरी । इतना याद है कि गाहे बगाहे लोग दोनों ही नाम इस्तेमाल करते थे । इस बात से कभी जहरा को भी कोई फ़र्क पड़ा हो, ऐसा मुझे याद नहीं । उस गांव-जवार में जहरा की...
अलका सरावगी के उपन्यास एक सच्ची झूठी गाथा पर सुधांशु गुप्त की टिप्पणी उपन्यास का जन्म प्रश्न या प्रश्नों से होता है। तभी वह जीवन से जुड़ पाता है। व्यक्ति को समाज से प्रशन ही जोड़ते हैं और प्रश्न ही व्यक्ति में खुद को तलाश करने की जिज्ञासा पैदा करते...
मुझमें हो तुमजब लौट जाते हो तो आखिर में थोड़ा बच जाते हो तुम मुझमें। मेरी आंखों की चमक और नरम हथेलियों के गुलाबीपन में या निहारती हुई अपनी आंखों में छोड़ जाते हो मुझमें बहुत कुछ- जो एकटक तकती रहती हैं मेरे होठों के नीचे के तिल को। कभी...
वरिष्ठ कथाकार शंकर के संपादन में निकलने वाली प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘परिकथा’ का नववर्ष विशेषांक (जनवरी-फरवरी 2021) कलेवर से लेकर कंटेंट तक सही मायने में याद रखा जाने वाला विशेषांक है। कोरोना वायरस के चलते हम अभी जिस दौर से गुजर रहे हैं, उसमें 145 पन्नों का अंक निकालना आसान...
1. आग लगी आग लगी हैउस बस्ती मेंआग लगी है सर्दी बड़ी हैहाथ ताप लोजलती है झोपड़ीआज तुम भीताप लो आग लगी हैताप लोअब तो केवलराख बची है!!सुलगते अंगारे इस दिल मेंजीवन भरआग अभीकहां बुझी है!अंगारों संग राख बची है!! आग हमारेपेट में लगी हैरोम रोम मेंभड़की हैसुबह शामबुझाओ कितनाबार बार यहक्यों...
गरीब औरत गरीबी में लिपटी औरतों की तकलीफेंतब दुगुनी हो जाती है,जब सुबह कुदाल लेकर निकला पतिशाम ढले हड़िया(देशी शराब) पीकर लौटता है,बच्चे माँ को घूरते हैंबापू आलू-चावल क्यूँ नहीं लाया?माँ बदहवास -सी घूरती हैखौलते अदहनऔर शराबी पति को… होठों पर सूखी पपड़ी कोजीभ से चाटतीहर माहबचाती है पगार से...
ब्लैक होल भौतिकी अध्ययनशाला में पढ़ते हुएसुनसान रातों में ढूँढते थे चमकते सुदूर तारेजीवन की खोज में जातेअंतरिक्ष यानों पर रखते थे निगाहऔर समझना चाहते थेब्लैक होल का चुंबकीय आकर्षण।मोटी किताबों में आकाश ही आकाश थाआदमी नहीं था कहीं। फिर ऐसा कुछ हुआजैसा कहानियों में होता हैहम राजकुमार दूरबीन छोड़गाँव...
एक ग़रीबों को फ़क़त, उपदेश की घुट्टी पिलाते हो बड़े आराम से तुम, चैन की बंसी बजाते हो है मुश्किल दौर, सूखी रोटियाँ भी दूर हैं हमसे मज़े से तुम कभी काजू, कभी किशमिश चबाते हो नज़र आती नहीं, मुफ़लिस की आँखों में तो ख़ुशहाली कहाँ तुम रात-दिन, झूठे उन्हें...
लिबरल्स बेशक सेये पढ़े हैंदेश-विदेश की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटियों मेंहासिल हैं ऊंची-ऊंची डिग्रियाँमाहिर हैं जुबान केबात का लहजा गजब हैउस्ताद हैं अपने फन केमगर बू नहीं है पसीने की इनके जिस्म मेंकृत्रिमगंध है तीखे परफ्यूम कीभीतर से खौफ खाये हैंबदलती दुनिया देखकरऔर रंग लाल नहीं हैबल्कि उनकी नज़र भर सेकलर ब्लाइंड...
आलोचना / कहानी / चर्चित कहानी / समीक्षा
by literaturepoint · Published 14 December 2020 · Last modified 28 December 2020
पल-प्रतिपल 85 में प्रकाशित योगेंद्र आहूजा की कहानी पर एक टिप्पणी सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव “वे लोग, जो भी हैं और जहां भी हैं, जान लें कि वे केवल जिस्म को खत्म कर सकते हैं, हमारे ख्याल नहीं, खाब नहीं और न उनसे लड़ते रहने का हमारा इरादा।” इन्हीं ख्याल, ख्वाब...
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर जिन्दगी के उपवन में हर तरीके के इंसान होते हैं। उन इंसानों में एक जात लड़की जात भी होती है । हर तरह के रंग,रूप, स्वभाव की लड़की । कच्ची उम्र में जड़ें तोड़ दी जाएँ तो पौधे की तरह पनपती नहीं है बोनसाई बन जाती...
सुविधाएं कहीं भी टिकाये रखा जा सकता है जीवन पैर कहीं भी नहीं टिकाया जा सकता रोया जा सकता है थोड़ा-थोड़ा पूरा जीवन पूरा जीवन एक साथ नहीं रोया जा सकता बढ़ता जाता है समय बैठती जाती है उम्र उम्र धकेली नहीं जा सकती समय बाँधा नहीं जा सकता। जीवन जीने की एक पूरी प्रक्रियाजीने के...
उम्मीदें अनायास दिख ही जातीं हैं आलीशान महलों को ठेंगा दिखाती नीले आकाश को लादे सड़क के किनारे खड़ी बैलगाड़ियां और उनके पास घूमता नंग-धड़ंग बचपन शहर दर शहर इतना ही नहीं खींच लेता है अपनी ओर चिन्ताकुल तवा और मुँह बाये पड़ी पतीली की ओर हाथ फैलाए चमचे को...
HINDI / आलोचना / किताबें / नॉन फिक्शन
by literaturepoint · Published 23 November 2020 · Last modified 28 December 2020
पुस्तक समीक्षा सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव गांधी के देश में गोडसे की पूजा होने लगे, तो खुद से यह सवाल पूछना ही चाहिए कि गांधी की विरासत को संभालने में हमसे कहां चूक हो गई? गांधी को जितना समझा है, उससे मैं यह अनुमान लगा सकता हूं कि अगर आज वो...
रेखाचित्र : रोहित प्रसाद पथिक ईश्वर ये दुनिया उनके लिए नहीं बनाई गयीजिनके लिए सिर्फ आसमानीपाप और पुण्य से बड़ी कोई चीज़ नहींफर्ज़ कीजिए कि ईश्वर कोईनयी दुनिया बनाने में व्यस्त हो जाता हैया फिर चला जाता है दावत पर कहींकिसी स्वाद में डूबकरअनुपस्थित हो जाता हैतो आप कितने इंसान...
मुसल्सल एक ही बात पर जान निकलती रहीभीड़ में भी वो निग़ाह देर तलक मुझे तकती रही तूने क्या मंतर पढ़ा ,जाने कौन सी बांधी तावीज रफ़्ता -रफ़्ता मैं तेरे निगाहे -तिलिस्म में बंधती रही शोर बरपा -सा क्यों है , तेरे बज़्म में यूँ सरासर उफ़्फ़! हाथ जो पकड़ा तूने ,बर्फ़...
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर वे जा रहे हैं। वह परिसर से बाहर खड़ा, उन्हें दूर जाते देख रहा है। जब वे नज़रों से ओझल हो गए तो वह लौट आया। उनके कमरे में अपने को ढीला छोड़ते हुए वह राहत की साँस लेता है परन्तु उनकी आवाजें कर्कश, मृदु, तीखी,...
पुस्तक समीक्षा सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव उसे वो पसंद हैंजो मुंह नहीं खोलतेउसे वो पसंद हैंजो आंखें बंद रखते हैंउसे वो पसंद हैंजो सवाल नहीं करतेउसे वो पसंद हैंजिनका खून नहीं खौलताउसे वो पसंद हैंजो अन्याय का प्रतिकार नहीं करतेउसे मुर्दे पसंद हैंवो राजा है(लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित कविता संग्रह ‘अंधेरे अपने...
अपनी अपनी बारी सरकारी अस्पताल में एक डॉक्टर के कमरे के बाहर पंक्तिबद्ध लोग अपनी-अपनी बारी की प्रतीक्षा में थे। वहीं कतार में एक बुजुर्ग महिला भी थीं जो प्रतीक्षा के पलों में अपने झोले में से कभी बिस्किट तो कभी चूरन की गोली और कभी सौंफ जैसी कोई चीज़...
बिछोह नदी और बुआ दोनों थीं एक जैसी सावन में ही हमारे गाँव आतीं थीं मंडराती थीं बलखाती थीं बह-बह जाती थीं गाँव घर खेत खलिहान सिवान दलान में बुआ झूलती थी झूलाऔर गाती थी आशीषों भरे गीतनदी भरती थी मिट्टी में प्राणजैसे निभा रही हो रस्म मना रही हो रीतदोनों लौट जाती थीं जब जाते थे...
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