वक्त की नब्ज टटोलती कहानियां
by literaturepoint ·

कहानी संग्रह : चिट्टी जनानियां
कथाकार : राकेश तिवारी
मूल्य : 299 रुपए
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पुस्तक समीक्षा
सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव
अच्छी कहानी कलकल बहती नदी की तरह होती है, जो पाठकों को अपने साथ बहाती हुई ले चलती है। पाठक उसकी रौ में बहता जाता है, उसके किरदारों को अपने इर्द गिर्द महसूस करता है और उसके कथ्य को खुद से जोड़ पाता है। हिन्दी कहानी में अपनी अलग पहचान बना चुके कथाकार राकेश तिवारी की कहानियां ऐसी ही होती हैं। वाणी प्रकाशन से हाल ही में आए उनके कहानी संग्रह ‘चिट्टी जनानियां’ की कहानियों को पढ़ते हुए मैंने ऐसा ही महसूस किया। इस संग्रह में कुल 10 कहानियां हैं।
‘चिट्टी जनानियां’ संग्रह की पहली ही कहानी है। यह कहानी ठूंठ संबंध जीने वालों के साथ उन लोगों की दास्तां भी है जो हर हाल में रिश्तों को हरा-भरा रखना चाहते हैं, चाहें इसके लिए उन्हें कोई भी कीमत क्यों न अदा करनी पड़े। ऐसे लोगों को दुनिया पागल समझती है लेकिन उन्हें इसकी परवाह कहां! मुख्य किरदार ही कहानी का सूत्रधार है। वह हर जगह ‘मैं’ के रूप में मौजूद है। उसे पहाड़ पर ज़मीन खरीदनी है। दिल्ली समेत देश के दूसरे बड़े शहरों में रहने वाले हर उस ‘मैं’ का, जिसके पास थोड़े पैसे हैं, यही सपना होता है कि वह पहाड़ पर थोड़ी जमीन लेकर घर बना ले और रिटायरमेंट के बाद वहां सुखी जीवन गुजारे। मैदान की इस मध्यवर्गीय प्रवृत्ति का इस कहानी में खुलकर चित्रण हुआ है। ज़मीन खरीदने के लिए उसने पिता के साथ ही क्या क्या तिकड़म किए, इसका भी अच्छा चित्रण है। दरअसल ऐसे लोग न तो अपनी वर्तमान से खुश हैं और न ही उन्हें पहाड़ की ज़िन्दगी की कठिनाइयों का इल्म है। वो पहाड़ को बस उतना ही जानते हैं, जितना वह तस्वीरों में खूबसूरत दिखता है।
ज़मीन खरीदने के लिए वह एक दलाल के साथ हल्द्वानी के एक गांव में पहुंचता है। घर में चार औरतें हैं। दो बेटियां, उनकी मां और दादी। सभी गोरी महिलाएं यानि चिट्टी जनानियां। ‘मैं’ जमीन देख लेता है, सौदा तय हो जाता है लेकिन अचानक चिट्टी जनानियां ज़मीन बेचने से मना कर देती हैं। यह तब होता है जब जमीन खरीदने पहुंचा ‘मैं’ अपने और अपने परिवार के बारे में बताता है और एक तरह से अपने तिकड़मों का खुलासा करता है। पिता अकेले उसी शहर में रहते हैं, जहां वह पत्नी के साथ रहता है। मां का कोई स्थायी ठिकाना नहीं। कभी उसके यहां तो कभी दोनों बेटियों के पास। पिता के पास तीन बेडरूम वाला फ्लैट था। लड़ झगड़ कर उसने फ्लैट बिकवा दिया और पिता को छोटा फ्लैट खरीदने को मजबूर किया। बाकी पैसे से अपने लिए फ्लैट खरीदा और बाकी बचे पैसे से पहाड़ पर जमीन खरीदने पहुंचा। उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि सुनते ही बड़ी लड़की रोते हुए घर के अन्दर चली जाती है और फिर वो जमीन बेचने से मना कर देतीं हैं। बहुत कुरेदने पर दलाल उसे बताता है कि उन्हें अपने पिता की याद आ गई थी, इसलिए जमीन बेचने से मना कर दिया। ‘मैं’ ने अपने पिता के साथ जो सलूक किया, उसे सुनकर बेटियों अपने पिता की याद आ जाती हैं। वह पिता, जो ऋषिकेश में गंगा में नहाते वक्त डूब गया था। वो हर वक्त अपने पिता को मिस करती हैं और इसलिए वह कल्पना भी नहीं कर पातीं कि कोई व्यक्ति अपने पिता के साथ ऐसा सलूक कैसे कर सकता है!
लड़कियों की दादी को पूरा विश्वास है कि उसका बेटा जिंदा है और एक दिन जरूर लौटेगा। वह चौबीसों घंटे उसकी राह निहारती रहती है। बेटे की बाट जोहना ही उसका काम है। उसकी नजरें गांव की ओर आने वाली मुख्य सड़क से हटती ही नहीं। दलाल दादी को पागल कहता है। वह अक्सर पड़ोस के मकान में चली जाती है क्योंकि उनकी दूसरी मंजिल से सड़क साफ दिखता है।। घंटों बैठकर सड़क निहारती रहती है। इसलिए परिवार ने ज़मीन बेचने का फैसला किया था ताकि उन पैसों से दो मंजिला बनवाया जा सके, ताकि दादी को पड़ोस के मकान की दूसरी मंजिल पर न जाना पड़े. वह अपने ही घर की दूसरी मंजिल पर बैठकर बेटे की राह देख सके।
कहानी में दो पिता हैं। इन दो पिताओं के जरिए राकेश ने कहानी को इतनी सघनता से बुना है कि बनते बिगड़ते रिश्तों की तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाती है। सौदा रद्द होने की वजह को वह दलाल के इस जवाब से ही खूब समझ जाता है कि लड़कियों को अपने पिता की याद आ गई थी। ‘मैं’ को अपनी गलती का एहसास होता है। ‘चिट्टी जनानियों’ ने रिश्तों का जो दीया रोशन कर रखा है, उसने शायद ‘मैं’ स्वार्थ के अंधेरे से निकाल लिया था। तभी उस रात उसे न केवल चैन की नींद आती है, बल्कि सपने में पिता भी दिखते हैं।
इस कहानी का कथ्य ही नहीं बल्कि कहन भी बेजोड़ है। चिट्टी जनानियों को लेकर शुरू से एक रहस्यमय वातावरण बना रहता है और राकेश अपने शब्दों और वर्णन से इस रहस्य को ऐसे बनाए रखते हैं कि पाठक को भी लगता है कि वाकई सब पागल हैं क्या। बहुत हद तक एक डर का माहौल भी पैदा हो जाता है। दादी की पागलों जैसी हरकत। घर का अजीब माहौल। यहां तक कि ‘मैं’ को भी लगता है कि कहीं यहां आकर उसनने गलती तो नहीं कर दी।
इस संग्रह की एक और बेहतरीन कहानी है ‘दांत’। महानगरों में बुजुर्गों का अकेलापन एक बड़ी समस्या है। यह कहानी इसी समस्या पर केंद्रित है। एक बूढ़ी मां अपने अकेलेपन से इतना डर गई है कि वह अपने बेटे को अमेरिका से वापस बुलाने के लिए एक बड़ा झूठ गढ़ती है। बेटे बहू के चले जाने के बाद उस पर अकेलापन इतना भारी पड़ने लगता है कि वह निर्जीव चीजों से बात करने लगती है। वह बर्तनों से बात करती है। गांधी जी की मूर्ति से बात करती है। फिर अचानक वह प्रचार करती है कि उसके पूरे दांत सोने के हैं। पूरे मुहल्ले में यह चर्चा का विषय होता है। वह इसे छिपाने की कोशिश नहीं करती बल्कि सबको बताने की कोशिश करती है। ऐसा वह इसलिए करती है कि कोई चोर उचक्का उसके घर धावा बोले, उसके दांत छीन ले जाए, छीना झपटी में उसे चोट आ जाए ताकि उसका बेटा उसे अमेरिका से देखने आए। बेटे की एक झलक पाने के लिए मां का यह झूठ अन्दर तक हिला देता है। अन्तत: जब बेटे के वापस लौटने की कोई उम्मीद नहीं बचती तो वह खुदकुशी की भी कोशिश करती है। कहानी के अन्त में एक रिक्शावाले की एंट्री होती है और उसके जरिए पता चलता है कि बूढ़ी मां को लेकर पूरी समाज क्या सोचता है और रिक्शावाले के जरिए समाज को भी पता चलता है कि बूढ़ी मां के सोने के दांत का दर्द क्या है। जब रिक्शवाला उसे तसल्ली देता है कि बेटे का अमेरिका जाना तो बड़ी अच्छी बात है तो वह कहती है, ‘जाना तो अच्छा लगता है लेकिन जब बच्चे लौटकर नहीं आते…मैं तो एकदम अकेली हो गई हूं। मेरा दम घुटता है। मुझे उसी तरह डर लगता है जैसे बचपन में लगता था।’ डर और दर्द की यह कहानी अकेली इस मां की नहीं है। पूरे देश के बड़े शहरों में एक बहुत बड़ी बुजुर्ग आबादी इस दर्द को जी रही है।
अभी हाल ही में मैं कोलकाता गया था तो न्यू टाउन में एक ऐसी ओल्डेज होम देखा, जो ऐसे ही बुजुर्ग मां-पिता के लिए है। इसका नाम ओल्ड एज होम नहीं है, इसे सर्विस अपार्टमेंट फॉर सीनियर लिविंग कहा जाता है। कोलकाता में है तो और कई शहरों में भी होगा। फ्लैट है। एक फ्लैट में अकेले रहना है तो एंट्री के समय 50 लाख रुपए तक का भुगतान करना पड़ेगा, दो लोगों के साथ रहना है तो 25 लाख के आसपास। महीने का खर्च 16 हजार से लेकर 40 हजार। हर सुविधा मिलेगी। जो बुजुर्ग बेटे या बेटी के विदेश जाने के बाद अकेले रह गए, उनमें से जिनके पास पैसे थे वो खुद इस आधुनिक ओल्ड एज होम में चले आए या जिनके बच्चे पैसे देकर अपनी संतान धर्म का निर्वाह करना चाह रहे हैं, उन्होंने अपने बुजुर्ग पिता माता को यहां छोड़ दिया है. पैसे की चकाचौंध में संवेदना कहीं गुम हो गई। जब बुजुर्गों के अकेलेपन की समस्या पर उद्योग खड़ा होने लगे तो आसानी से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि समस्या कितनी गंभीर है।
राकेश की कहानियों की एक खास बात यह है कि वह महिलाओं के दर्द को बड़ी ही संवेदना के साथ रेखांकित करती है। चाहें वह ‘छन्ने की लौंडिया गुनगुनाती हो’ कहानी हो या ‘मुचि गई लड़कियां’ या ‘चिट्टी जनानियां’ हों। छन्ने की बीवी बहुत खूबसूरत है लेकिन उसके बदले उसे क्या मिला? राकेश लिखते हैं, ‘सुन्दरता के पुरस्कार में उसे दीवारें मिली थीं, जिनसे छनकर कभी-कभार सिसकियां और कराहें बाहर आ जातीं। मानो दीवार सिसकती हो।’ कहानीकार औरत की तुलना दीवार से करता है। मूक-निर्जीव। इन बस्तियों में रहने वाली औरतों की ज़िन्दगी ऐसी ही है। वो घर की मजबूत दीवार तो हैं लेकिन निर्जीव। उनकी कोई इच्छा नहीं, उनकी कोई ख्वाहिश नहीं, उनके कोई सपने नहीं। इसलिए छन्ने की बीवी की यह पूरी कोशिश थी कि वह अपनी बेटी को दीवार नहीं बनने देगी। ‘मां उसे आकाश के भी ऊपर टांगना चाहती है। अलग नज़र आने वाला चमकदार सितारा बनाकर।’ छन्ने की बेटी गाना गाती है, रियलिटी शो में जाना चाहती है और मां उसकी इस ख्वाहिश को पूरी करने में जी जान से जुट जाती है। जब छन्ने कहता है, ‘लौंडिया के पर निकल रए हैं’ तो वह कहती है, ‘थोड़ा तो उड़ लेन दो। फिर तो…’
‘फिर तो…’ में वह डर छिपा हुआ है, जो उसकी जैसी हर मां के दिल में छिपा हुआ है। कहीं उसकी बेटी की ज़िन्दगी भी उसी की जैसी न हो जाए।
एक छोटे से सपने के पीछे भागती एक बच्ची और उसे सफल बनाने की कोशिश में जुटी उसकी मां के मार्फत कथाकार ने मध्य और निम्म मध्यवर्गीय स्त्री की जीवन की दुरुहता और उनकी जीवटता दोनों को बखूबी चित्रित किया है। बाहर छेड़खानी करने वाले आवारा लौंडे हैं तो घर में सपने की हर राह में बाधा बनकर खड़ा बाप है। अगर लड़कियां ज्यादा बिन्दास होने लगें, हिम्मत दिखाने लगें तो उन्हें बदनाम घोषित कर दो। ‘मुचि गई लड़कियां’ की तारा, नीता और कान्ता के साथ ऐसा ही तो होता है। लड़कियों का उड़ना पुरुष शासित समाज को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं। जब तीनों लड़कियां बाल कटवा लेती हैं तो पूरा गांव क्या सोचता है, इस बारे में राकेश लिखते हैं, ‘ज्यादातर का मानना था कि छोकरियां इतराने और उड़ने लगी हैं। गांव वाले ‘हरकतें’ तो थोड़ा बहुत बर्दाश्त कर लें, इतराना भी पचा लें, लेकिन उड़ने उडाने से उन्हें सख्त एतराज था। इस गांव में औरतों को कभी किसी ने उड़ते नहीं देखा। किसी औरत ने कभी सोचा ही नहीं कि उड़ना कोई जरूरी क्रिया हो सकती है। औरत जैसे दोपाये को उड़ना क्यों चाहिए?’
‘सूराख तो होगा’ कहानी हर आदमी पर नज़र रखने की सत्ता की साज़िश का खुलासा करती है। आज राजनीति उस मोड़ पर खड़ी है, जिसमें विरोध करने वाले के लिए कोई जगह नहीं है। विरोध करने वाले बिल्कुल बर्दाश्त नहीं। किसी से जरा भी विरोध का अंदेशा हो तो उसे सबक सिखा दो। अब यही नया नार्मल है। कहानी यह भी दिखाती है कि विरोध को दबाने के लिए किस तरह तमाम सरकारी एजेंसियों को झोंक दिया जाता है।
‘मंगत की खोपड़ी में स्वप्न का विकास’ कहानी भी इस संग्रह में शामिल है। इस कहानी के लिए राकेश तिवारी को रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार से नवाजा गया है। यह कहानी उस सपने के इर्द गिर्द घूमती है, जो देश के 130 करोड़ लोगों का सत्ता हासिल करने के लिए दिखाया गया था। हर बैंक खाते में 15 लाख रुपए का सपना। मंगत राम के दिमाग में इस सपने का विकास कुछ ऐसे हुआ कि वह अपना काम धाम छोड़ कर इसी में रम गया। उसे पक्का भरोसा था कि उसके अच्छे दिन दूर नहीं। पैसे एकाउंट में आए या नहीं यह जानने के लिए वह अक्सर बैंक भी पहुंच जाता है। दुनिया उसे पागल समझती है लेकिन इस सवाल की पड़ताल कौन करेगा कि उसे पागल बनाया किसने? कहानी किस तरह अपने वक्त का ऐतिहासिक दस्तावेज बन सकता है, यह कहानी उसकी एक अच्छी मिसाल है। जुमले किस तरह आदमी को सपने के नशे में धुत कर देते हैं, वह मंगतराम के किरदार में दिखता है। मंगतरामों की कमी नहीं है। हर रोज़ नए सपने उछाले जाते हैं और मंगत राम असली समस्या भूलकर उसमें मगन हो जाता है। हाशिए पर धकेल दी गई समाज के वंचित वर्ग का प्रतिनिधि है मंगतराम।
मंगतराम की खोपड़ी में सपना घुसता कैसे है? यह भी पढ़िए,
‘ बेडौल आदमी ने बहुत ही धीमे स्वर में कुछ कहा। कहते हैं उसकी बात सुनकर मंगतराम किसी और ही दुनिया में पहुंच गया था। वह पुतलियां उलटकर अपनी ही पलकों के अंदर देखते हुए गुटरगूं-गुटरगूं बोलने लगा। चूंकि वह गुटरगूं-गुटरगूं बोलने लगा था इसलिए माना जाता है कि बेडौल आदमी ने लालकिले के बुर्ज से उड़कर आए किसी कबूतर के बारे में बताया था, जिसके पैरों में गरीबों के दिन फिरने का संदेश बंधा था।’ लालकिला सत्ता का प्रतीक है। वहां से उड़कर आए कबूतर ने मंगतराम की खोपड़ी में केमिकल लोचा कर दिया। कहानी में सच को प्रभावी ढंग से बताने के लिए फंतासी का जिस तरह से उन्होंने प्रयोग किया है, वह अद्भुत है। इस संदर्भ में वागर्थ के संपादक और वरिष्ठ आलोचक डॉ शंभुनाथ का कथन याद आता है। वो कहते हैं, ‘कहानी की श्रेष्ठता बहुत कुछ इस पर निर्भर करती है कि उसमें कितना गल्प है, कितना झूठ बोला गया है। कथा में झूठ बोले बिना ऐसा सच नहीं कहा जा सकता जो मन को स्पर्श कर सके। कथा सच कहने के लिए झूठ रचने की सर्वोच्च कला है।’ (परिकथा , जनवरी फरवरी 2020 (अच्छी कहानी चिड़िया की तरह है ))
मॉब लिंचिंग पर केंद्रित कहानी है ‘नुक्कड़ नाटक’। मॉब लिंचिंग का चश्मदीद एक बुजुर्ग जब वहां से लौटता है तो वह अपने सीने का बोझ हल्का करने के लिए खुद को यह समझाता है कि वह मॉब लिंचिंग नहीं, नुक्कड़ नाटक देख कर लौट रहा है। वह सोचता है ‘वह रंगबाज नहीं, बल्कि रंगकर्मी थे। वे काफी कुशल थे। उन्होंने किसी न किसी नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षण अवश्य लिया होगा। इस ख्याल के आते ही वह सड़क के बीचोबीच ठिठक गया। जैसे कुछ कौंध गया हो। तो फिर तो कोई इस नाटक का निर्देशक भी होगा? और पटकथा भी किसी ने लिखी होगी?’ हाल के वर्षों में मॉब लिंचिंग की वारदातें जिस तरह बढ़ी हैं, उसमें कभी कभी सवाल में ही जवाब छिपा होता है। हर सवाल जवाब का इंतज़ार नहीं करते बल्कि उनसे जवाब खुद ही प्रतिबिंबित होता रहता है। बुजुर्ग के इस सवाल का जवाब लेखक को देने की जरूरत नहीं। पाठक को पता है जवाब। कहानी भीड़ और तमाशबीन दोनों की मानसिकता को बढ़िया से चित्रित करती है।
‘खतरनाक’ कहानी राजनीति में शोषण के अंतहीन सिलसिले का आख्यान है। मानसिक रूप से बीमार महिला अपने नेता पति को भालू बताती है। भूरा भालू। वह कहती है, ‘जब वह मत्स्यकन्याओं का आलिंगन करता है तो भालू की तरह एकदम अशिष्ट तरीके से –बेअर हग।’ लड़कियों को राजनीति में ऊंची उड़ान का सपना दिखाकर उसका पति उनका यौन शोषण करता है और फिर पत्नी को विस्तार से इस बारे में बताता भी है। पत्नी बेडरूम की खिड़की से देखती है कि उसका पति किस तरह लड़कियों की इज्जत से खिलवाड़ कर रहा है। राजनीति में उनका करियर बनाने के झूठे वादे कर रहा है। वह अवसाद में चली जाती है। कभी कभी आक्रामक हो जाती है लेकिन उसकी सहेली मनोचिकित्सक को बताती है, ‘ये तो उस आदमी के मुकाबले जरा भी खतरनाक नहीं है।’ पूरी कहानी का मर्म इस एक संवाद में छिपा हुआ है। जिसके हाथों में हम खुद को सुरक्षित मानकर निश्चिंत बैठे हैं, दरअसल समाज का सबसे खतरनाक व्यक्ति वही है। ऐसे ही एक दूसरे खतरनाक व्यक्ति की कहानी कीच है। इस कहानी में लेखक ने धर्म के नाम पर चलने वाले पाखंड और पॉवर गेम को बेनकाब किया है।
इस संग्रह की कई कहानियां पहले से ही काफी चर्चित हैं। अगर आपने अभी तक नहीं पढ़ा है तो आपको जरूर पढ़ना चाहिए। ये कहानियां आपको और समृद्ध करेंगी।