अच्छे और बुरे आदमी के बीच की ‘बारीक रेखा’ की कहानी
प्रज्ञा की कहानी ‘बुरा आदमी’ पर सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव की टिप्पणी
कबीर कह गए हैं,
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय
हर भले आदमी के भीतर एक बुरा आदमी छिपा होता है। वह कब फन उठाएगा कोई नहीं जानता। भले आदमी को बुरा आदमी बनने में बस एक पल ही लगता है। यही एक पल महत्वपूर्ण होता है। पहल-122 (जून-जुलाई 2020) में प्रकाशित प्रज्ञा की कहानी ‘बुरा आदमी’ इसी एक पल की कहानी है। यही एक पल है जो पाठक को बांधे रखता है। जैसे-जैसे कहानी बढ़ती है,उसके दिल की धड़कनें बढ़ने लगती है कि अब क्या होगा? यह प्रज्ञा की किस्सागोई का कमाल है कि क्लाइमेक्स पर पहुंचे बगैर पाठक कहानी को छोड़ नहीं पाता।
कहानी का वाचक ही मुख्य किरदार है। ‘मैं’ शैली में कहानी आगे बढ़ती है। एक सफल बीमा एजेंट टूटेजा सर के यहां काम करने वाला ‘मैं’ अपने बॉस की ज्यादती से परेशान है लेकिन नौकरी तो गुलामी ही है, करनी ही पड़ेगी। टूटेजा कहानी में सामने आने वाला पहला बुरा आदमी है लेकिन यह कहानी उसके बारे में नहीं है।
टूटेजा ‘मैं’ को अक्सर उस वक्त प्रीमियम वसूलने के लिए दूर भेजता है, जब छुट्टी का वक्त होता है। इस तरह हर रोज उसे घर लौटने में देर होती है। यह कहानी ऐसी ही एक रात की है, जब वह देर रात घर लौट रहा होता। हालात ऐसे बनते हैं कि उसे काफी दूर पैदल ही चलना पड़ता है। अंधेरी सुनसान रात में उसे एक नाबालिग लड़की मिलती है, जो घर से भागी हुई है। पिता की पिटाई से नाराज होकर वह घर छोड़ कर निकल पड़ी है। लड़की का पिता कहानी में दूसरे बुरे आदमी के रूप में सामने आता है लेकिन यह कहानी उसके बारे में भी नहीं है।
घनघोर अंधेरी रात में अकेली लड़की को देखकर ‘मैं’ घबराता है। ‘मैं’ को देखकर लड़की भी डरती है लेकिन ‘मैं’ उसे यह समझाने में कामयाब होता है कि वह उसका शुभचिंतक है, उसे किसी भी खतरे से बचाना चाहता है। पाठकों को भी ‘मैं’ पर पूरा भरोसा होता है, लड़की भी भरोसा कर लेती है। जब लड़की ‘मैं’ के साथ आ जाती है तो पाठक आश्वस्त होता है कि अब उस बच्ची को कोई खतरा नहीं लेकिन पार्क में बेंच पर जब वह ‘मैं’ के कंधे पर सिर रखकर सो जाती है तो उसके अन्दर का बुरा आदमी फन उठाने लगता है। लड़की की देह के लिए पुरुष के जानवर में तब्दील हो जाने का खतरा मंडराने लगता है। देखिए उस खौफनाक पल का वर्णन प्रज्ञा ने किस तरह किया है,
“वो मुझसे सटी हुई थी। उसके सारे शरीर का भार मुझ पर था। रात की उस हल्की ठंडक में एक गर्म भाप मेरे कंधे को छू रही हो। यही नहीं उसकी सांसों की आवाज़ को मैं बहुत अच्छी तरह सुन पा रहा था। मेरे पूरे बदन में एक झनझनाहट दौड़ गई। दिल में अजीब-सी बेचैनी होने लगी। मैंने अपने सूखते गले में एक घूंट भरा, थूक निगला। मैं उसके बेहद नजदीक था। मेरा हाथ उसके कुर्ते के किनारे को छू रहा था। थोड़ी देर में वो किनारा मेरे नाखून के नीचे था। मैंने महसूस किया कि नाखून बढ़ रहा है। नुकीला, खूंखार और निर्मम। मैंने गहरी सांस ली। अपने दिल की धड़कन को महसूस किया। मैंने देखा उस वीराने में बहुत सारे नाखून उग रहे हैं। खून से सने। मैं बहुत सारी गहरी आंखें आग-सी दहकती हुई महसूस कर रहा था। उस वीराने में कई जोड़ी हाथ उगने लगे हैं। सब तरफ अंधेरा था।”
क्या ‘मैं’ अपने अंदर के बुरे आदमी के फन को कुचल पाया या फिर उसके नाखून भी लड़की के खून से सन गए? पाठक के मन में यही सवाल उमड़ने लगता है। लगता है ‘मै’ पर भरोसा करना ठीक नहीं रहा।
अन्दर का बुरा आदमी जैसे ही फन उठाता है, वैसे ही उसे कुचल देने में कुछ लोग कामयाब हो जाते हैं, ज्यादातर लोग नाकाम। अपने अंदर के बुरे आदमी के साथ लड़ाई आसान नहीं होती। अपने अंदर के बुरे आदमी से ‘मैं’ की लड़ाई का अंजाम क्या रहा, यह जानने के लिए आप कहानी पढ़िए, लिंक नीचे दे रहा हूं।
http://pahalpatrika.com/frontcover/getdatabyid/562?front=50&categoryid=14
बढ़िया।