रंजन ज़ैदी की ग़ज़लें
- जो वक़्त था आख़िर बीत गया
जो वक़्त था आख़िर बीत गया, अब उसकी शिकायत कैसे करूँ ?
है चाँद वही सूरज भी वही, तारों की अदावत कैसे करूँ?
बच्चों को उठाये कांधों पर, इक भीड़ हवा के साथ चली,
जो अपने ठिकाने छोड़ आये मैं उनकी इनायत कैसे करूँ?
है मेज़ पे जो तस्वीर सजी, बेवा की है वो महबूबा थी,
कॉलेज में कभी हम साथी थे अब उससे मुहब्बत कैसे करूँ?
हम लोग सियासत में अकसर ताक़त के लिए ही जीते हैं,
इंसान नहीं हम वहशी हैं, वहशत की हिमायत कैसे करूँ?
जब खूं में सनी लाशें देखीं, साहिल ने कहा छुप जाओ कहीं,
इक लहर समंदर से निकली, पूछा कि बग़ावत कैसे करूँ?
लाशें थीं मकाँ में जलती हुईं, ज़ंजीर भी थी दरवाज़ों में,
गलियों में लहू था नाहक़ का ख़ाकी की शिकायत कैसे करूँ?
2. दूर उफ़ुक़ पर हलचल क्यों है
दूर उफ़ुक़ पर हलचल क्यों है, क्या कुछ होने वाला है.
इक पंछी पिंजरे से निकल कर चाँद पे सोने वाला है.
समझाया था राहे-सफ़र में आँख न मूँद के चलना तुम,
लेकिन इश्क़ में वो नादाँ तो, होश भी खोने वाला है.
अब क्या तहज़ीबों का आलम, होगा बस अल्लाह जाने,
इंसानों की क़द्रों को तूफ़ान डुबोने वाला है.
इक-इक करके डूब न जाएँ, सब क़द्रें इंसानों की,
हम क्या जानें कल क्या होगा, तूफ़ाँ आने वाला है.
इस मक़तल में दम घुटता है, सांसें भी ज़हरीली हैं,
हर क़ैदी ये पूछ रहा है अब क्या होने वाला है?
गीली लकड़ी आग पकड़कर, ज़ह्र का दरिया पार करे,
अब समझे दरिया में किसको कौन डुबोने वाला है.