पल्लवी मुखर्जी की 5 कविताएं
by literaturepoint · Published · Updated

- शब्द मरते नहीं
मेंरे भीतर की आग का
थोड़ा सा हिस्सा लेकर
तुमने सुलगाई
जीवन की लौ
बाकि बचे हुए
आग की आँच को
हवा देती हूँ मैं
उसकी लौ पर
उबलते हैं शब्द
शब्दों की भाषा को
पढ़ते हो तुम
शब्द मिट्टी में
मिलने से पहले
एक साँचे में
ढल चुके होते हैं
शब्द मरते नहीं
- आँच
क्या तुमने
अपने भीतर की
आँच को परखा
बहुत ज़रूरी है
आँच का होना
जैसे चूल्हे की आग में होता है
एक रोटी को पकने के लिए
जितनी आँच की ज़रूरत है
उतनी आँच हो
तुम्हारे भीतर
बस
धधकती आग न हो
आग की लपटें
नष्ट कर देती हैं
धरती का हरापन
और
राख हो जाते हैं
उस मासूम के स्वप्न
जिसके पाँव के नीचे की ज़मीन
फैली है क्षितिज तक
- शहर
ये जो
चेहरे होते हैं न
स्मित मुस्कान लिए हुए
जिनकी आँखों की चमक से
चौंधिया जाते हो तुम
उन्हें बारीकी से देखना
परत दर परत
उनकी मुस्कान
धुंधली नज़र आएगी
जैसै कोई शहर
साफ़ नहीं दिखता धुंध में
शहर की
तलाश करने के लिए
उसके भीतर
जाना पड़ता है
- जीवन के रंग
तुमने आँखों के रास्ते गुज़रकर
मेरे भीतर पगडंडियाँ बनाई थी
और बनाए थे कई रास्ते
उन रास्तों और पगडंडियों के किनारे
कुछ पौधे और फूल उगे थे
जो हरे थे और रंग से भरे
जीवन का रंग भी हरा होता है
घास भी हरी और फूल भी खिलते हुए
समुद्र को गहराई से देखो
हरा ही दिखता है
आकाश का रंग नीला और सफेद
उसे छूकर गुज़र जाना होता है
तुम मेरे भीतर हरा रहो
पत्तों की तरह
- स्त्री
वह मेरे भीतर की
थाह जान चुका है
ऐसा वह कहता है
इतना सरल है
एक स्त्री को जानना?
जबकि स्त्री की आँखें
घूमती है विश्व पटल पर
घूमती है पूरे शहर में
स्त्री नापती है एक
वृत की गोलाई को और
एक नदी बहती है
स्त्री के भीतर
स्त्री पृथ्वी है
जो घूमती जाती है
अपनी ही धूरी पर
और प्रेम
एक मायाजाल
एक भ्रम
एक प्यास की बूंद
जो चिपकी होती है अंत तक
जैसे चिपकी हो कोई बूंद
किसी पत्ते पर