आलोक कुमार मिश्रा की कविताएं
- बिछोह
नदी और बुआ
दोनों थीं एक जैसी
सावन में ही हमारे गाँव आतीं थीं
मंडराती थीं बलखाती थीं
बह-बह जाती थीं
गाँव घर खेत खलिहान सिवान दलान में
बुआ झूलती थी झूला
और गाती थी आशीषों भरे गीत
नदी भरती थी मिट्टी में प्राण
जैसे निभा रही हो रस्म
मना रही हो रीत
दोनों लौट जाती थीं
जब जाते थे कुछ दिन बीत
इधर हम शहर में बस गये
फिर बुआ गाँव में क्यों आती
वो रही भी नहीं
एक दिन बता गई कोई पाती
पता नहीं क्यों
बुआ जब-जब याद आई
याद आई उसके साथ ही आने वाली
अपने गाँव की वो बरसाती नदी
जिसे कहते थे हम अकड़ारी
और जो बरखा बाद
सिमटते-सिमटते हो जाती थी
विलीन खुद में ही
दादी कहा भी करती थी-
‘लड़की और नदी दोनों सावन में
आतीं हैं नइहर
और अपने मन से जीती हैं खुद को’
मैंने सोचा था
‘इस बार बुआ न सही
नइहर आई उस नदी को देखूँगा’
पर हाय ये क्या
जब मैं गाँव पहुँचा
नदी नहीं थी गाँव के बाहर
कहाँ से आती सावन में
ओह! बुआ तुम और नदी
दोनों साथ चलीं गईं क्या
क्या हमारे गाँव छोड़ जाने से
इतना नाराज थीं
तुम दोनों।
- लड़की और आदमी
लड़की ने साँस लिया
धरती हरिया गई
लड़की हंसी और
हवा लहरा गई
लड़की के बैठने पर
तरु सब झुक गये
लड़की जब खड़ी हुई
पर्वत उचक गये
लड़की जब आगे बढ़ी
राह दी दिशाओं ने
लड़की जब थक गई
पनाह दी फिज़ाओं ने
लड़की फिर सो गई
आया एक आदमी
आया एक आदमी तो
सब कुछ बदल गया
धरती मुरझा गई
हवा भी थर्रा गई
तरुवर झिझोड़ उठे
पर्वत के शीश झुके
दिशाएं सब चीख पड़ीं
फिज़ाओं के रंग लुटे
लड़की के ऊपर
एक साँप सा लिपट गया
हाय वहाँ क्या हुआ
हाय ये क्या हुआ
बस वहाँ एक तन था
कुचला हुआ मन था
आदमी तो जा चुका था
आदमियत को खा चुका था।
- सपना और हकीकत
मैं सपने में अक्सर
आकाश में होता हूँ
बादलों पर रहता हूँ
उड़ता हूँ
जो मन में आए करता हूँ
मगर जब नींद खुलती है
मैं धरती को और कसकर
पकड़ लेता हूँ
अपनी स्नेहसिक्त बाहों में
बड़ी शिद्दत से भर लेता हूँ
क्योंकि मैं
अपने ही पैरों के नीचे की मिट्टी से
एक बार दरक चुका हूँ
गाँव से शहर आकर
इन सपनों की हकीकत
परख चुका हूँ।
- तब फूटती है कविता
मैं नहीं लिख सकता
हर बात पर कविता
कुछ बातों पर मुझे
झुंझलाना आता है
कुछ पर गुस्सा
कुछ पर मैं रो पड़ता हूँ
और कुछ पर
चुप ही रह जाना आता है
कुछ बातों पर मैं ध्यान नहीं देता
कुछ को जज्ब कर जाता हूँ
कुछ बातों को लौटाता हूँ
दो-तीन गुना करके
तो कुछ को लेकर
बस सो जाता हूँ
कुछ बातों से खेलता हूँ
कुछ से लड़ जाता हूँ
कुछ से प्यार हो जाता है
और कुछ को
अपनी आत्मा पर मलता हूँ
इस पर भी कुछ बच जाए
अंतस को मथ जाए
तब फूटती है कविता
मैं नहीं लिख सकता
हर बात पर कविता।
- ऐसा क्यों होता है?
सैकड़ों वाह्टस्अप संदेशों में
मैं सबसे ज्यादा ध्यान और शिद्दत से
उसके संदेश ही क्यों पढ़ता हूँ
पढ़ते हुए इतना खुश क्यों होता हूँ
पढ़कर मोबाइल से नजर उठाकर
जब देखता हूँ इधर-उधर
तब सब इतना खूबसूरत क्यों लगता है
आसपास उपस्थित लड़कियों महिलाओं को
क्यों देखने लगता हूँ बड़े सुंदर भाव से
क्यों उसकी आवाज़, हंसी या होना
महसूस करने लगता हूँ अपने आसपास
संदेश भी क्या होते हैं-
‘पापा मैंने पढ़ाई कर ली है
आप कब तक आओगे
मैंने आज छुटकू का पूरा ध्यान रखा
मम्मी का कहना माना
लड़ाई नहीं की’
बताओ भला इसमें क्या खास है
अपनी आठ घंटे की ड्यूटी के बाद
उसके पास ही तो होना है
फिर क्यों होती है
इस तरह से मेरी बिटिया
मेरे आसपास
जब नहीं होती पास
तब भी ।
- घबराहट
बेटियों के तमाम खेल देखकर
हुलसता हूँ
कई बार तो उसमें शामिल हो
बच्चा ही बन जाता हूँ
पर जब वो खेलती हैं
अपनी माँ के दुपट्टे से
ओढ़कर घूँघट बनती हैं दुल्हन
घबरा उठता है मेरा मन
मेरी आँखों में दिखने लगती हैं-
पिंजरे में कैद चिड़ियां
तमाम दुकानों और घरों में
सजाकर रखी गुड़ियां
एक कतार में चली जा रही
ढकी-बुझी स्त्रियाँ
उन्हें हांकती जा रही
आगे-पीछे खड़ी पुरुषों की दुनिया
मैं घबरा कर दुपट्टा ले लेता हूँ
और कहता हूँ-
‘चलो कुछ और खेलें
लो किताब और बनो टीचर’
फिर मैं उसका
विद्यार्थी बन जाता हूँ।
आलोक कुमार मिश्रा
जन्म तिथि:– 10 अगस्त 1984
शिक्षा:- दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए (राजनीति विज्ञान), एम एड, एम फिल (शिक्षाशास्त्र)
संप्रति- दिल्ली के सरकारी विद्यालय में शिक्षक
प्रकाशन– समसामयिक और शैक्षिक मुद्दों पर लेखन, कविता-कहानी लेखन, कुछ पत्र- पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित भी हो चुकी हैं जैसे-जनसत्ता, निवाण टाइम्स, शिक्षा विमर्श, कदम, कर्माबक्श, किस्सा कोताह, परिकथा, मगहर, परिंदे, अनौपचारिका, वागर्थ, हंस आदि में।
बोधि प्रकाशन से कविता संग्रह ‘मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा’ प्रकाशित। तीन पुस्तकें अलग-अलग विधाओं में प्रकाशनाधीन।
संपर्क:– मकान नंबर 280, ग्राउंड फ्लोर, पॉकेट 9, सेक्टर 21, रोहिणी, दिल्ली 110086
मोबाइल नंबर– 9818455879
ईमेल- alokkumardu@gmail.com
आलोक जी
सभी कवितायें अच्छी हैं। मेरा ख़्याल है ‘नइहर ‘शब्द ‘नैहर’ लिखा जाता है।आप विद्वान हैं हो सकता मैं गलत हूँ।
राजेश’ललित’