अनुराग अनंत की कविताएं
तुम्हारे कंधे से उगेगा सूरज
तुम्हारी आँखें
मखमल में लपेट कर रखे गए शालिग्राम की मूरत है
और मेरी दृष्टि
शोरूम के बाहर खड़े खिलौना निहारते
किसी गरीब बच्चे की मज़बूरी
मैंने जब जब तुम्हें देखा
ईश्वर अपने अन्याय पे शर्मिदा हुआ
और मज़दूर बाप अपनी फटी जेब में
हाथ डालते हुए आसमान की तरफ देख कर बुदबुदाया
स्कूल की जिस सीट पर बैठती थी तुम
मेरे स्वप्न में आती है
बिल्कुल अलग तरह से
किसी फिलस्तीनी बच्चे की तरह चमकीली आंखें लिए
युद्ध के बीच शांति और प्रेम का पुनर्पाठ करती हुई
मैं तुम्हारे बालों को याद करता हूँ
और गहरी काली रातें मुझे अच्छी लगने लगतीं हैं
जब सब तरफ़ बंज़र ही बंज़र है
लोग भूख और प्यास के बीच
पेंडुलम की तरह दोलन कर रहे हैं
ना जाने मुझे क्यों लगता है
तुम्हारे हरे रिबन से ही फूटेगी हरियाली
और आदमी आदमी के गले लग कर खूब रोएंगे
सब एक दूसरे से माफ़ी मांगेंगे
सब एक दूसरे को माफ़ कर देंगे
तुम्हारे एक कंधे से उगेगा सूरज
एक कंधे पर खिलेगा चाँद
और भीषण अंधेरे में तुम दिखाओगी रास्ता
मुझे लगता है जब सब युद्ध में एक दूसरे की गर्दन काट रहें होंगे
तुम्हारे वक्ष शांति कपोतों की तरह उड़ जाएँगे आकाश में
और सारे युद्ध, सारे अस्त्र-शस्त्र, सारी घृणा
धरे के धरे रह जाएँगे
स्वप्न-प्रसंग
तुमने कहा था एकबार
गहरे स्वप्न में मिलोगी तुम
कितने गहरे उतरूँ स्वप्न में कि तुम मिलो ?
एकबार मैं डूबा स्वप्न में इतना गहरा कि फिर उभरा ही नहीं
तब से सब कहते हैं मैं जागती आँखों से ख़्वाब देखता हूँ
मैं देखता हूँ एक बच्चा पगडंडी पर भागता जा रहा है
एक बुढ़िया पानी की बाल्टी लिए चली जा रही है
एक सुहागन नदी में नहा रही है
एक मजदूर खोद रहा है ज़मीन
एक नौजवान हाथ मल रहा है
और एक लड़की ना जाने किसकी राह तक रही है
मैं किसी पुराने मंदिर की देव प्रतिमा सा चटकता हूँ
मेले में बिछड़े किसी बुज़ुर्ग सा भटकता हूँ
मैं दोपहर की धूप में बीच आंगन पड़ी जूठी थाली की तरह ऊब रहा हूँ
मैं अपने स्वप्न में ही डूब रहा हूँ
इस उम्मीद के साथ कि तुम गहरे स्वप्न में मिलोगी
बहेलिए की एड़ी में धँसे किसी तीर की तरह
असंभव कल्पना
मेरी कल्पना को बहुत सारे असंभवों ने घेर रखा है
वहाँ तिल भर रखने की भी जगह नहीं
फिर भी मैं पैर टिकाए खड़ा हूँ
और बुदबुदाते हुए जो कुछ भी कह रहा हूँ
सब कविताओं में दर्ज़ हो रहा है
मैंने एक दिन कहा था कि
भाषा के किले पर चढ़ाई कर दें
बूढ़ी तवायफें
और निचोड़ दें अपने सूखे स्तनों से
एक क्षीर सागर
ताकि पता चले कितने ईश्वर जीवित रह सकते हैं
उस दूध में डूबे हुए
कितने मनुष्य पी सकते हैं उसे
शिशुओं की तरह
जबकि मालूम सबको है कि
जिन्होंने भी इस दूध को पिया
वे कुछ भी कहलाने से पहले हरामज़ादे कहलाए
अन्यायों के समुच्चय से भरी इस दुनिया में
इससे बड़ा कोई अन्याय हो तो मुझे बताया जाए
मेरी कल्पना में जूते पाँवों के मोहताज़ नहीं
वे अनंत तक चले जाते हैं पाँव विहीन ही
उनके साथ मोचियों के हाथों की व्यथाएँ भी यात्रा करती हैं
और उनके मन की पीड़ा भी
शून्य से अनंत तक ग़रीब बच्चों की शिकायतें फैली हैं
और राजा खड़ा है सिर झुकाए
राष्ट्रीय चिन्हों के आगे गोद दिए हैं बच्चों से प्रश्न चिन्ह
और देश को माटी के लोंदे सा हाथ में लिए
बच्चे बना रहे हैं घरौंदा, चिड़िया, खरगोश और स्वर्ग
मेरी कल्पना में ईश्वर कुदाल चलाता है
और पसीने के अनुपात में रोटी कमाता है
मंत्रियों की जुबानों को बता दिया गया है लोहे का स्वाद
औरतें अपने होने में भरपूर हैं
कोई भी पुष्प अवसादग्रस्त नहीं है
और न किसी चिड़िया के पंख कटे हैं
घर लौटता मज़दूर कटी हुई पतंग की तरह नहीं है
युवाओं के मन सीलन भरे कमरों की ज़ेरॉक्स कॉपी नहीं हैं
उन्हें अपनी छातियों, मूछों और नाकों से ज़्यादा
अपने मस्तिष्क की फ़िकर है
वे अपनी स्त्रियों की छातियाँ देखते हैं
और कच्चे दूध सा महकने लगते हैं
लड़कियाँ चलते हुए चिड़िया हो सकती हैं
और सोचते हुए मनुष्य
कोई आँख ऐसी नहीं है जिसमें एक्स रे की मशीन छिपी हो
लोग गिरते हुए को उठाते हैं
और गिर गए को देख कर हंसते नहीं
मेरी कल्पना में एक देश है
जहाँ लोगों के नामों से जाति, धर्म और लिंग का पता नहीं चलता
आदमी, आदमी की तरह जीता है
आदमी, आदमी की तरह मरता है
मेरी कल्पना को बहुत सारे असंभवों ने घेर रखा है
वहाँ तिल भर रखने की जगह नहीं है
अनुराग अनंत, जनसंचार एवं पत्रकारिता में शोध छात्र हैं। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय लखनऊ में शोधरत। रहने वाले इलाहाबाद (प्रयागराज) के हैं। वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं। कविताएं विभिन्न पत्रिकाओं और वेब मैगजीन में प्रकाशित