प्रतिभा चौहान की 5 कविताएं

नाम- प्रतिभा चौहान
जन्म- 10 जुलाई , हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश) में
शिक्षा- एमo एo( इतिहास ), एलo एलo बीo
प्रकाशन- वागर्थ, हंस, निकट, अक्सर, जनपथ, अंतिम जन, इंडिया टुडे, आउट्लुक, विभोम स्वर, शिवना सहित्यिकी, इंद्रप्रस्थ भारती, इंडिया इन्साइड, अक्षर शिल्पी, अक्षर पर्व, छपते-छपते, चौथी दुनिया, कर्तव्य-चक्र, जागृति, यथावत, गौरैया, सरिता, वाक्-सुधा, साहित्य निबन्ध, जनसत्ता, पंजाब टुडे, सृजन पक्ष, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान, अमर उजाला, प्रभात खबर, दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित।
शब्दांकन, जानकीपुल, लिटरेचर पाइंट, कृत्या, मीडिया मिरर, गर्भनाल, प्रतिलिपि ब्लाॅग्स में कवितायें।
“कविता कोश” में कुछ कवितायें ।
आजकल ,अंतिम जन, विकल्प है कविता , इरावती, चौथी दुनिया, संवेदना एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की संचयिका एवं जर्नल में लेख।
“पेड़ों पर मछलियाँ” कविता संग्रह (2017)
कविता संग्रह ” स्टेटस को” शीघ्र प्रकाश्य ।
देश की विभिन्न भाषाओं में कविताओं का अनुवाद। राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय सेमिनार में शिरकत व आलेख पठन ।
पुरस्कार/ सम्मान – लक्ष्मीकान्त मिश्र राष्ट्रीय सम्मान (2018),राम प्रसाद बिस्मिल सम्मान (2018)
संप्रति- न्यायाधीश ,बिहार न्यायिक सेवा
संपर्क-
cjpratibha.singh@gmail.com
- मत करो नियमों की बात आज
सिसकियाँ और रुदन के बीज
क्या पनपते रहेंगे
बलिदानों की धरा पर
क्या पसीने की बूँदे
न पिघला देंगी
तुम्हारे पत्थर के सीने को
चहकते महकते मचलते उछलते
बच्चों की कोहनियों की चोटें
कब तक बोती रहेंगी
व्यथा की फ़सल
क्या आज बोए बीज का
पककर फूटना बिखरना
न देगा नए बीजों को जन्म
क्या उपजती व्यथाएँ साथ साथ
न कर देंगी अपने कँटीले हाथों से
वक़्त का सीना ज़ख़्मी
ख़ाली पेट की आग झुलसाती है कलेजा
मत करो नियमों की बात आज
वो नहीं समझेंगे
तुम्हारा गुणगान
न विधान न संविधान ।
2
ख़ुशनुमा प्रहर में
समुद्र के छलनी हृदय को
दूर तक मरहम लगातीं
चाहतों की पट्टियाँ…
शांत हलचलें
शाम के वक़्त की
जब सिमट जाता है साया क़दमों तले
डूब जाता है दर्द तुम्हारे गहराई के विस्तार पर औंधे मुँह
सुनातीं हैं लहरों की लोरियाँ …
टाँके गए सितारों की ओढ़नी
बिछने को तैयार है
धीरे हिलते डुलते गुनगुनाते तुम्हारे मस्तक पर
दूर तलक जाती ख़्वाबों की रुनझुन आवाज़ें
दस्तख़ों में तब्दील होते वक़्त
इस ख़ुशनुमा माहौल की
रंगीनियाँ चुराने को तैयार हैं…
अपने अपने ख़यालों में गुम हो चुकी
ब्रह्मांड की एक एक ईंट
कुछ देर और ठहरना था
पत्थरों में संजीवनियों को
इन नज़ारों की भूलभुलैया में
कि अब रात को कुतरने लगा है उजाला…
3
गुलाब गुमशुदा हैं
गुलाब गुमशुदा हैं
एक सतरंगी शाम में
शुष्कता पतझड़ की
सावन की नमी
मन के लिबास पर
उकेरी गयी मुस्कुराहट है
या क्षितिज में गाड़ी गयी कील
दरअसल
हम उसूलों में जूझते हुए
औरों के दिए नाम में डूबकर
घूम जाते हैं सारी दुनिया
और उन्हीं के मौसम में ढूँढते हैं
अपनी प्यास बुझाने के असबाब
अपनी परछाइयों को भी छुपाते हैं
अपनी ही साँसों के शोर से
मुक्ति के आधार भी तलाशते हैं
अतीत के विचारों के भँवर में
पाते हैं गुमशुदा फिर
उन्ही के बनाए हुए हवनकुंडों में
जो दूसरों को साबित करने का बीड़ा उठाते हैं
और भूल जाते हम अपना रास्ता
आज़ादी के द्वीप के किसी कोने में
4
अर्थ
नयी सदी के तमतमाए चेहरे
ढूँढ रहे हैं अपने होने का अर्थ
‘मज़दूर दिवस’ पर मज़दूर
‘महिला दिवस’ पर महिला
‘बाल दिवस’ पर बालक
‘शिक्षक दिवस’ पर शिक्षक
और भी
इसी तरह कई चेहरे
प्रकाश की अंतिम बूँद में
ढूँढ रहे हैं अपने गुमनाम पते की सही चिट्ठी …
5
आख़िरी बूँद तक
अभी चल देंगे
शाम की आख़िरी बूँद तक
उड़ेंगे
चोंचों में भरकर
पूरे दिन की कमाई…
लौटेंगे अपने आशियानों में
विश्व की पूरी परिक्रमा के बाद
थके माँदे राही से
यह महाजीवन
बड़ी ही साधारण सी यात्रा का एक बिंदु है
कितनी अद्वितीय होती हैं संवेदनायें
खींच लेती हैं
अपनों को अपनी ओर
सोखतीं हैं सभी कसैले स्वाद
बिना किसी गुणा भाग के