सवाल बनकर पीछा करने वाली कहानी
क से कहानी में आज सुधा अरोड़ा की कहानी ‘एक मां का हलफनामा’ पर चर्चा
सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव
बहुत कम कहानियां ऐसी होती हैं, जो बेचैन करती हैं, पीछा करती हैं। ‘एक मां का हलफनामा’ ऐसी ही एक कहानी है। छोटे कलेवर की बड़ी कहानी। बेटी को गंवा चुकी एक मां का मार्मिक बयान पाठकों के मन में गहरे उतरता जाता है। मर्माहत पाठक जब क्लाइमेक्स पर इस दर्द से मुक्त होने और सारा सच जान लेने की बात सोचता है, तभी मां कह उठती है,
‘क्या आपने ऐसी लड़की अपने घर में, पास-पड़ोस में, रिश्तेदारों में देखी है? देखी हो तो मुझे जरूर बताना। मैं उसे तेज़ी की तरह जाने नहीं दूंगी। उसे रोक लूंगी। सच कहती हूं।’
इस संवाद के साथ कहानी तो पूरी हो जाती है लेकिन खत्म नहीं होती। वह एक सवाल बनकर पाठकों के सामने खड़ी हो जाती है। सवाल सिर्फ इतना नहीं कि क्या तेजी जैसी तन्हा, हताश, डिप्रेस्ड लड़की हमारे आसपास है, बल्कि यह भी अगर है तो क्यों? आखिर उसकी यह स्थिति क्यों है? इसी ‘क्यों’ के इर्द गिर्द घूमती यह कहानी लड़कियों को लेकर समाज की साइकोलॉजी को बहुत ही बारीक ढंग से उधेड़ती है। इस ‘क्यों’ का जवाब ढूंढे बिना मुक्ति नहीं है क्योंकि यह सवाल सिर्फ तेज़ी की मां का नहीं है, यह सवाल अहमदाबाद की आएशा आरिफ की मां का भी है और कोलकाता की रसिका जैन की मां का भी। यह सवाल ऐसी लाखों मांओं का है।
आएशा और रसिका की मौत की खबर से आपलोग वाकिफ होंगे। इनके विस्तार में नही जाऊंगा मैं, बस इतना बताना चाहूंगा कि आएशा ने 27 फरवरी को अहमदाबाद में साबरमती नदी में डूबकर खुदकुशी कर ली तो 16 फरवरी को कोलकाता में संदिग्ध स्थिति में तीसरी मंजिल से गिरने से रसिका की मौत हो गई।
खुदकुशी से पहले आयशा ने अपना वीडियो बनाया था और तमाम बातों के साथ कहा था, “मैं हवाओं की तरह हूं, बस बहते रहना चाहती हूं। किसी के लिए नहीं रुकना”।
इस हवा को मुट्ठी में बंद करने की कोशिश हुई। ठीक वैसे ही, जैसे तेजस्विनी की उड़ान रोक दी गई। तेजस्विनी, रसिका और आएशा में फर्क बस इतना है कि आएशा बहुत कुछ बता कर गई, रसिका के बारे में भी पता था कि ससुराल में वह खुश नहीं है लेकिन तेजस्विनी चुपचाप चली गई। उसने कभी किसी की शिकायत नहीं की।
मतलब यह है कि तेजस्विनी कोई एक किरदार नहीं है। वह एक बार नहीं मरती। बार-बार मरती है। नाम बदल जाते हैं। कभी तेजस्विनी, कभी आएशा तो कभी रसिका। आप इस कहानी में तेजस्विनी का नाम हटाकर आएशा का नाम डाल दीजिए, क्या फर्क पड़ेगा। वही दर्द, वही अकेलापन, वही अवसाद, वही अन्त।
ऐसा इसलिए क्योंकि सुधा जी ने इस कहानी में जो सवाल उठाए हैं, वो शाश्वत हैं। ये सवाल सैकड़ों साल पहले भी थे, आज भी हैं और अगर हम नहीं बदलें तो आगे भी रहेंगे। ऐसी कहानियां ही समय-काल के दायरे से आगे निकलकर कालजयी बन जाती हैं।
हमारे समाज की कड़वी सच्चाई यही है कि वह ऐसी घटनाओं पर सकते में आता है, व्यथित होता है, आंसू बहाता है, बहस करता है और फिर पुराने ढर्रे पर लौट आता है, जहां हर वक्त लड़कियों से उसके हिस्से का आसमान छीनने की साजिश रची जाती है। उस समाज का हिस्सा हम-आप सभी हैं। कठघरे में हम सभी खड़े हैं।
याद रखिएगा हर खुदकुशी खुदकुशी नहीं होती, उनमें से ज्यादातर हत्या ही होती है। तेजस्विनी की मां का कबूलनामा इसी ओर संकेत करता है। वह कहती हैं-
‘आप पूछती हैं तो मेरी तो उंगली अपने-आप पर उठ जाती है जी। कभी कभी हत्यारों को भी खुद पता नहीं होता कि वे कर क्या रहे हैं?’
यह कबूलनामा विचलित करता है। एक बेटी का पिता होने के नाते मैं भी खुद को टटोलने से नहीं रोक पाता कि कहीं मैं भी तो अनजाने में ऐसा ही कुछ नहीं कर रहा। अपनी बेटी से बेइंतहां प्यार करने वाला कोई भी मां-बाप इस सच्चाई को सुनकर सकते में आ जाएगा। अपनी पड़ताल करेगा। इसकी जरूरत भी है।
यह अपने सपनों के साथ एक लड़की के मरते जाने की कहानी है। वह अपने सपनों को मरता नहीं देखती बल्कि उसके साथ खुद भी मरती जाती है। तिल-तिल कर मरने का यह दर्द वह अकेली झेलती है और किसी को इसकी भनक तक नहीं होने देती।
यह उस ईमानदार स्वीकारोक्ति की भी कहानी है कि कभी-कभी मां-बाप बेटी की भलाई के लिए अपने हिसाब से जो सर्वोत्तम फैसला लेते हैं, वही उनके लिए सबसे बुरा साबित होता है। मां-बाप खुद को अचानक कठघरे में पाते हैं कि ये उन्होंने क्या कर दिया? इस बात से तो किसी को इनकार नहीं होगा कि मां-बाप कभी अपनी संतान का बुरा नहीं चाहेंगे। तेज़ी के मां-बाप ने भी नहीं चाहा होगा। आएशा या रसिका के मां-बाप ने भी नहीं चाहा होगा। फिर चूक कहां हो गई? यह कहानी उसी चूक की पड़ताल करती है और इतनी निर्ममता से करती है कि एक मां खुद को कसाई से लेकर बेटी का हत्यारा तक मान लेती है।
इस कहानी में शादी वह टर्निंग प्वाइंट है, जिसने तेजस्विनी से उसकी तेज़ी छीन ली। शादी के बाद पहली बार आठ दिनों के लिए मायके लौटी तेजस्विनी बदल चुकी थी। बोलना कम हो गया था। हंसना भूल गई थी।
ऐसा क्यों हुआ?
घरवालों ने इस बदलाव के बारे में क्या समझा होगा? तेज़ी की मां कहती है,
‘शादी के बाद हर लड़की के चेहरे पर रौनक आ जाती है। रूप-रंग निखर जाता है। इसका भी चेहरा भर गया था पर बोलना कम हो गया था। ज्यादा बातें नहीं करती थीं।’
घरवालों ने तो यही सोचा होगा कि शादी के बाद लड़की और ज्यादा मैच्योर हो गई है। गंभीर हो गई है। शादी के आठ दिन बाद ही भला किसी लड़की को क्या समस्या हो सकती है? कोई समस्या हो ही नहीं सकती। ऐसा ही सोचा जाता है। ऐसा ही सोचने का रिवाज है।
लेकिन तेजी के साथ आठ दिनों में क्या हुआ-यह तेजी ही जानती थी। इन आठ दिनों में उसके सपने मर चुके थे। वो समझ चुकी थी कि ज़िन्दगी में वो जो कुछ करना चाहती है, अब नहीं कर पाएगी। बचपन में झूले पर उसकी ऊंची उड़ान से डरी सहमी मां जब टोकती थी, तो वह कहती थी कि फिर मेरा नाम तेजी क्यों रखा, मंदी क्यों नहीं रख दिया? ससुराल के पहले आठ दिन ने ही तेजी को मंदी में बदल दिया था।
इस कहानी में दर्द की कई परतें हैं और तेजस्विनी का अकेला मन कई मोर्चों पर इन दुखों को सहता है। वह शादी नहीं करना चाहती थी। पढ़ लिखकर अपनी सहेली की तरह ही लेक्चरर बनना चाहती थी। शादी के लिए वह इसी शर्त पर तैयार हुई थी कि उसकी पढ़ाई नहीं छुड़वाई जाएगी लेकिन शादी के बाद वह नहीं पढ़ पाई। उसकी पढ़ाई छुड़वा दी गई।
उसके मां-बाप कभी इस बात को जानने की कोशिश नहीं करते कि आखिर उसकी पढ़ाई जारी रखने का भरोसा देने वाले सास-ससुर-पति ने उसे आगे क्यों नहीं पढ़ने दिया। हमारे समाज में इसका चलन नहीं है। बेटी खुश है, मां-बाप के लिए इतना ही काफी है। बेटी के मन के अंदर क्या चल रहा है, इसे जानने की कोशिश कोई नहीं करता।
ऐसा भी नहीं था कि तेजी के मां-बाप को कुछ भी पता नहीं था। मां कहती भी है
उसके मुंह में जब छाले हो जाते थे और पैरों में एक्जिमा तो वो हमें दिखता था, इसलिए पता चलता था। यह तो लगता था कि तेजी की तेजी में तरेड़ पड़ती जा रही है पर वह ऐसे देखते-देखते पड़ी कि दिखाई ही नहीं दी।
बेटी के तथाकथित खुशहाल संसार में कोई खलल न पड़े, कथित रूप से बहुत अच्छे और घर के इकलौते बेटे से शादी पर कोई असर न पड़े इसलिए जुबां मुंह के अंदर दुबकी रही। न तेजी के मन में झांकने की कोशिश हुई, न ही कोई सवाल। मां कहती है,
‘हमने उसके कम बोलने से छूट गई दरारों से उसके अंदर झांकने की कोशिश ही नहीं की। नहीं पता था कि कम बोलने के साथ वो कम जीना भी शुरू कर देगी और एक दिन—’
यह केवल एक मां का पछतावा नहीं है बल्कि समाज के लिए एक चेतावनी भी है। अगर कोई चंचल तेजस्विनी अचानक चुप हो जाए तो उसके मन में झांकने की जरूरत है। अगर उसके मन में नहीं झांका गया तो वह और अकेली पड़ती चली जाएगी और एक दिन उसी राह पर चल पड़ेगी, जिस राह पर नहीं जाना चाहिए।
बेटियों का एक दर्द अपने ही घर में पराए हो जाने का भी होता है। शादी होते ही वह घर पराया हो जाता है, जहां वह जन्मी-पली-बढ़ी। तेजस्विनी तो इकलौती संतान थी, फिर भी उसे यह दर्द झेलना पड़ा। सुहांजने का पेड़ का कट जाना, पुराने कपड़ों का नहीं मिलना, कविता वाली डायरी का कबाड़ी में बिक जाना। छोटी बातें बड़ा जख्म करती हैं। जहां कुछ भी अपना नहीं रहा, वहां एक बेटी को यह भरोसा कैसे हो सकता है कि मां-बाप भी अपने रह गए होंगे।
सच्चाई तो यही है न कि अगर बेटी ससुराल की समस्याएं मायके में बयां करे तो उसे यही समझाया जाता है कि घर परिवार में थोड़ा एडजस्ट करना पड़ता है, थोड़ा बर्दाश्त करना पड़ता है। एडजस्टमेंट की यह परंपरा सदियों पुरानी है। बेटी की मां ने भी यही किया होगा। बेटी से भी यही उम्मीद है।
तेजी को शायद एहसास था कि उसे भी बर्दाश्त करने की नसीहत ही सुननी पड़ेगी। शायद इसीलिए उसने अपना दुख साझा ही नहीं किया। उस मां-बाप से भी नहीं, जो उस पर जान छिड़कते थे। बस अकेली होती चली गई। इतनी अकेली कि अब मां की धड़कनों के साथ उसकी धड़कनें एकाकार नहीं हो सकती थी। मां को इस बात का एहसास तो होता है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है-
एक बार पराए घर चले गए तो वो बचपन कहां मिलता है. पराया घर धीरे धीरे अपना बनाता है। उसे अपना बनने में वक्त लगता है लेकिन ये घर पहले ही पराया हो चुका होता है।
तो क्या फिर सारी बुराई शादी में ही है? बेटियों को ऐसे हश्र से बचाने के लिए उनकी शादी न कराई जाए? समस्या शादी में नहीं है, उस मानसिकता में है, जो स्त्री को हमेशा पुरुषों से कमतर आंकती है। लड़कियों को सिर्फ ससुराल में ही समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता बल्कि वह जिस क्षेत्र में आगे कदम बढ़ाती है, प्रतिरोध ही उसका स्वागत करता है। वरना आयशा और रसिका के परिवार की आर्थिक हैसियत में बहुत फर्क है लेकिन संपन्नता से उनकी स्थिति नहीं बदलती।
तो चोट उस मानसिकता पर करने की जरूरत है, जो लड़कियों को कमतर मानती है। और इसकी शुरूआत घर से ही करनी होगी। समाज में जो जहर फैलता है, वह किसी फैक्ट्री में नहीं बनता। वह हमारे आपके घर में ही तैयार होता है।
एक बार इस तथ्य की ओर ध्यान दीजिए कि हमारे घर में बच्चे कैसे बड़े होते हैं? बेटियां घर के काम में हाथ बंटाएंगी लेकिन बेटों को इससे छूट है। संस्कार के नाम पर बेटियों को बचपन से ही यह बताया जाता है कि उन्हें अपने घर जाना है। बचपन से ही उनके मन में यह बात बिठा दी जाती है कि यह उनका अपना घर नहीं है। उनका घर कहीं और है, जहां उन्हें जाना है। वहां के लिए उसे खुद को रसोई से लेकर हर काम में निपुण होना है। बेटे को कुछ नहीं करना है क्योंकि उसके लिए कहीं कोई दूसरा अपनी बेटी को ऐसे तमाम कार्यों के लिए तैयार कर रहा होता है। घर के काम में बुराई नहीं है, बुराई उस रूढ़ि में है, जो इसे सिर्फ लड़कियों के हिस्से में डालता है।
अगर तेजस्विनी को बचाना है तो समाज की बुनियादी सोच में बदलाव की जरूरत है। शादी कन्या का दान नहीं, बराबरी का एक संबंध है—हमें इस सोच की दिशा में बढ़ना होगा। सुधा जी का कोलकाता से पुराना और गहरा संबंध रहा है, इसलिए कोलकाता में करीब 11 साल पहले इस दिशा में हुई एक छोटी लेकिन जोरदार शुरुआत की चर्चा करना चाहूंगा। आपलोग शायद इससे वाकिफ भी हों।
डॉ नन्दिनी भौमिक की अगुवाई में महिलाओं के एक ग्रुप ने पुरोहिती का काम शुरू किया। ग्रुप का नाम शुभमस्तु है। ये शादी से लेकर श्राद्ध तक के सारे कर्मकांड करवाती हैं। ये महिला पुराहितें जो शादियां कराती हैं, उनमें कन्यादान का रस्म नहीं होता। कन्या कोई चीज नहीं, जिसे दान दिया जाए। दूल्हा जब सिन्दूर लगाता है तो दुल्हन भी अपने माथे के सिन्दूर से उसे तिलक लगाती है। यानि बराबरी का संबंध। पति-पत्नी के इस संबंध में कोई छोटा-बड़ा नहीं है। दोनों एक ऐसे संबंध में बंध रहे हैं, जो बराबरी का है।
शुरुआती विरोध के बाद आज उनकी पहल कामयाब है। एक बदलाव हुआ है। ऐसा नहीं है कि बंगाल उस मानसिकता से पूरी तरह मुक्त हो चुका है, जिसका शिकार तेजी जैसी लड़कियां हो रही हैं लेकिन एक शुरुआत तो है। संस्थागत रूढ़ियों को तोड़ने में वक्त तो लगता है।
इस कहानी के दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा तेज़ी के संघर्ष का है और दूसरा हिस्सा उस अवसाद का, जिसमें वह धीरे-धीरे डूबती चली जाती है। अवसाद या डिप्रेशन का यह संकट और गहराया है। डिप्रेशन की बात करें तो इस कहानी का दायरा बहुत बड़ा हो जाता है। डिप्रेशन की वजह अलग अलग हो सकती है लेकिन कई मामलों में वह ऐसे खतरनाक अंजाम की ओर ही ले जाती है। कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन के दौरान डिप्रेशन और खुदकुशी के कितने मामले आए, यह आप सभी जानते हैं। इसलिए जब तेजी की मां कहती है कि वह दूसरी लड़कियों को इस तरह जाने से बचाना चाहती है तो इसका संदेश बहुत साफ है। यहां लड़ाई उन्हें डिप्रेशन से निकालने की भी है। उन्हें यह बताने की है कि सपनों का मर जाना आदमी का मर जाना नहीं है। आदमी बचेगा तो नए सपने देखे जा सकते हैं।
इसके लिए जरूरी है उनसे बात करना। उनमें यह भरोसा जगाना कि वो अकेली नहीं हैं। उनका दुख बांटने की जरूरत है। उन्हें इमोशनल सपोर्ट देने की जरूरत है। चुप्पी तोड़ना बहुत ही जरूरी है। बात ही दुख की दवा है।
समाज में दुख बांटने वालों की बहुत कमी है। हमें तेजी जैसी बच्चियों को बचाना है तो दुख बांटना सीखना होगा। चेखव की कहानी माइजरी के कोचवान दर्द तो आपको याद ही होगा। उसे एक भी ऐसा इंसान नहीं मिलता, जिससे वह अपने बेटे की मौत का गम बांट सके। अगर तेजी भी अपना दुख बांट पाती, अपनी चुप्पी तोड़ पाती तो शायद जीवित होती। यही दुख उसकी मां को भी जीवन भर सालता रहेगा कि काश उससे बात कर ली होती, उसका दर्द जान लिया होता। इसलिए अब वह दूसरी बच्चियों का दुख बांटना चाहती है।
इस कहानी की सबसे बड़ी ताकत यह है कि इससे आप खट से खुद को कनेक्ट कर सकते हैं। अपने आसपास को, अपने समाज को कनेक्ट कर सकते हैं। इस कहानी की एक खासियत यह भी है कि वह विस्तार में नहीं जाती। संकेतों में बहुत कुछ कह जाती है और इसलिए कहानी से उपजे सवाल पाठकों को ज्यादा मथते हैं।